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एक चनपट में चोरी छूटी
बालक सहज-स्वभावी होता है । उसमें अच्छे-बुरे संस्कार अड़ोस-पड़ोस से आते हैं । बच्चे को भले-बुरे का परिणामी ज्ञान नहीं होता । वह दूसरे के कहे कहे कर डालता है । सोचने की अपनी शक्ति नहीं होती । परिणाम उसके समझ से बाहर होती है । सिखाये-सिखाये वह बुरी आदत में पड़ जाता है और वह ना समझ, बुरे जीवन का रास्ता पकड़ लेता है ।
यों तो हर बच्चा जानता है, अच्छा क्या होता है, बुरा क्या होता है ? तभी तो वह बुरा काम छुपकर करता है । छुपकर करने का अर्थ है बुरा काम । पाप और क्या होता है ? जो चोरी-छिपे किया जाए वही तो है पाप ।
किसी की सिखावट, फुसलाहट, प्रभाव या प्रलोभन से बच्चा घर का सामान चुराने लगता है। आंख बचाकर वह चोरी करता भी है और अपने आपको होशियार भी मानता है । उसका कोमल मानस अनभिज्ञ होता है । यदि समय रहते मां-बांप संभाल सकें तो उसकी आदत बदल भी सकती है, अन्यथा एक बुराई हजार बुराई पैदा करती है। लापरवाह अभिभावक इसके जुम्मेदार होते हैं। बच्चों का जीवन बनाना भी एक कला है ।
तुच्छ स्वार्थ-पोषण के लिए अपने कहलाने वाले लोग बच्चों को कैसे बिगाड़ते हैं | अपना एक संस्मरण सुनाते हुए श्री भाईजी महाराज फरमाया करते थे
उन दिनों मेरे में एक नयी आदत शुरू हो रही थी । मेरे एक निकटतम सम्बन्धी मुझे प्रोत्साहित कर रहे थे । हमारे घर में माताजी की ओर से सभी खाद्य पदार्थ खुले रहा करते थे । हम बच्चे जब भी जी चाहता, उनका स्वतंत्र उपयोग करते, किसी को कोई रोक-टोक नहीं थी ।
हमारी शाल के टोडियाले में एक भांड में सुपारियां भरी रहा करतीं । अब वह खाली होने लगी । मैं कभी मुट्ठी भर कभी कम - बेसी सुपारियां चुराने लगा ।
२०६ आसीस
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