________________
६
मेरी शरारत, लाडांजी की मुसीबत
बच्चे शरारती तो होते ही हैं । वह उमर भी वैसी ही हुआ करती है । फिर लाडले बच्चे का तो कहना ही क्या ? श्री भाईजी महाराज, बचपन में सबके मुंहलगे थे । अतः शैतान होना सहज था । दादा राजरूपजी के होते उन्हें कोई होंठ का फटकारा भी नहीं दे सकता था | दादाजी के देहान्त के बाद भी वह पुराना रीति-रिवाज वैसा ही रहा । तूफानी आदतें उमर के साथ-साथ बढ़े जा रही थीं। एक बार अपनी शरारतों का विवरण करते हुए श्री भाईजी महाराज ने स्वयं फरमाया ।
बहन लाडकुंवर बाई चुहिया से बहुत डरती थीं। कोई चूहा रसोई घर में दिख जाता तो वह ऐसे चिल्लाकर भागती मानो कोई काला सांप निकल आया हो । उनकी चिल्लाहट सुनकर घर के सब लोग इक्ट्ठे हो जाते। मुझे अनायास ही एक कौतुक हाथ लग गया। मैं झूठ-मूठ ही कह दिया करता
'बाई ! बाई ! उंदरी, उंदरी' और बाइसा घुघाकर गली में जा बोलती । चुहिया हमारे लिए तमाशा बन गया ।
मैं कई बार औरे (कोठे) में से चुहिया की पूंछ पकड़कर ले आता और फिर देखो नाटक । तमाशा तो हमारे होता, लाडांजी को तो जी की बन जाती। वे ही जानतीं जो उनमें बीता करती । वे आगे-आगे दौड़तीं और मैं पूंछ पकड़ी चुहिया लिये, पीछे हो जाता । खूब छकाता । अंत वे मां की शरण में जा पहुंचतीं और जब मांजी की दाकल - डांट पड़ती तब मैं मानता ।
·
'पकड़ पूंछडी उंदरड़ी, मैं ल्यातो मन-मोद | डर लाडांजी भाजता, बड़ता मां की गोद ||
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
संस्मरण २०
www.jainelibrary.org