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क्या दुःखता है ?
आचार्यप्रवर का प्रवास सौराष्ट्र-गलीचे वालों की हवेली (मोती सिंह भोमिये का रास्ता) में हुआ है । गोलछा परिवार जयपुर का मान्य घराना है। हमारे संघ के साथ इस परिवार का अच्छा-खासा सम्बन्ध है। अवश्य ये तेरापंथी नहीं हैं, पर बहनों, बेटियों और सगे-संबंधियों के सम्पर्क ने एक-दूसरे को इतना नजदीक ला दिया है, पता नहीं चलता। कुछ संत हवेली के ऊपरी कक्षों में बैठे हैं। हम दरवाजे के दाहिने हाल में और आचार्यप्रवर बांये हाथ के कमरों में विराजते हैं । पंडाल दरवाजे की ऊपर वाली छत पर है। आचार्यप्रवर का रात्रिकालीन विश्राम भी पंडाल में ऊपर ही रहा । मौसम एकदम बदल गया है, यों तो अभी चैत्र का महीना है पर गरमी जेठ जैसी है।
कल का अवशिष्ट स्वागत कार्यक्रम आज पुनः वहीं रामलीला मैदान में रख दिया है। भाईजी महाराज वहां नहीं पधार सके । मोतीडूंगरी तक घूमकर आने के बाद थकान आ गयी है। शरीर में दर्द काफी है । कुछ देर उदास-से किसी चिन्तन की गहराई में विराजे रहे। सोने की इच्छा हुई। मुझे (श्रमण सागर को) आवाज दी। मैं तकिया लेकर गया। बिछौना लगाकर मैंने सहजभाव से पूछा-क्यों भाईजी महाराज ! क्या दुःखता है ? ___ मुझे क्या पता दुःखन कहां से कहां पहुंच जायेगी। श्री भाईजी महाराज ने फरमाया-'दुःखता क्या है ? क्या बताऊं? यह दिल दुःखता है । यह दिन दुःखता है। अफसोस है, सैकड़ों मील साथ-साथ चलकर आया और पंडाल तक भी नहीं जा सका। बस, यही कमजोरी दुःखती है।'
'ताकत राखी काल तक, थांभण नभ भुज-थंभ। पडूं पडू चम्पक पड्यो (ओ) दुखे देहरो दंभ।
संस्मरण ३३१
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