________________
मरख कोचवान
भाईजी महाराज का २००६ का वर्षावास पुरानी दिल्ली नया बाजार में था। उस वर्ष आचार्यप्रवर जयपुर विराज रहे थे । मुनिश्री का यह आचार्यप्रवर से अलग दूसरा चातुर्मास था। एक दिन सायंकाल तीस हजारी पुल उतरकर हम अजीतगढ़ जाने वाले राजपुर मार्ग की मोड़ पर मुड़े। एक तांगेवाला हमारे पास-पास निकल रहा था। हम देख रहे थे उसका घोड़ा बार-बार रुकता था। कोचवान चाबुक मारमारकर उसे आगे बढ़ने को बाध्य किए जा रहा था। भाईजी महाराज ने एक बार, दो बार, तीन बार देखा । घोड़ा हमसे आठ-दस कदम आगे निकलता है फिर रुक जाता है । उसका यों बार-बार मार्ग में आड़े आ-आकर रुकना मुनिश्री को सर्वथा असुहावना लग रहा था।
भाईजी महाराज के चेहरे पर करुणार्द्रता के भाव झलक उठे। ज्यों ही चौथी बार घोड़ा रुका, कोचवान ने चाबुक सड़काया कि घोड़े ने दुलत्ती चलाई । 'पड़ाक' तांगा बोला। भाईजी महाराज से न रहा गया। माथा ठोकते हुए मुनिश्री ने कहा-डफोल ! मेरे सिर पर ही आकर रोयेगा क्या? फिर रोयेगा तो पहले ही सोच ले।
मैंने पूछा-'क्यों? भाईजी महाराज ने फरमाया-क्यों क्या?
'कशा मार, खेंचे कुशा, ओ बे-अकल अजाण।
करमा नै रोसी कुशी! प्रोथी तजसी प्राण ॥' लगता है, घोड़े का पिशाब रुक गया है। यह बार-बार पिशाब करने की चेष्टा करता है। कोचवान अनभिज्ञ है। पहचानता नहीं। घोड़ा हांफ गया है। संभव है यह मूरख कोचवान घोड़े से हाथ धो बैठेगा, फिर रोएगा कर्म पर हाथ
२५०
आसीस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org