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कली-कली चम्पा ! खिलै दिन लेखे मैं आय । शान्ति, स्नेह, सन्तोष, सुख, समता मैं दिन जाय ॥६७॥
करणी करणं वासते, आछो दिन कोइ ओर । मुश्किल मिलणो आज स्यूं, कर चम्पा ! कुछ गोर ॥ ६८ ॥
काल - काल मै कालओ, बीत गयो बे-कार । परमारथ पायो नहीं, चम्पा ! सुरत संभार ॥ ६६ ॥
कोमल धागां में कियां, उलझ्झयो आर्द्रकुमार ? अनुबन्ध अनुराग रो, चम्पा ! जरा विचार ॥७०॥
कर पुरुषारथ पराक्रम, लै बल भूल जगत र भंवर मै, चम्पा !
कनक कामणी दोय है, विग्रह मूलक बक्र । अंतहीन तृष्णा अमित, चम्पा ! मोटो चक्र ॥७२॥
वीर्यं बटोर । पजी न और ॥ ७१ ॥
कुपित कुलांछा मारता, भंवर विवर अणपूर । आरंभ और परिग्रह, चम्पा !
कोकाटा करती है, जलम-मरण री धार । उत्पादी व्यय ध्रौव्य मय, चम्पा ! ओ संसार ॥ ७४ ॥
कर विवेक, वैराग्य स्यूं, अधिक न रम निर्मल निर्वेद मै, चम्पा !
रहिजे दूर ॥७३॥
करण वालो नहिं कियो, दियो जमारो खो । चम्पा ! तूं रो किन ? जिणनै रोणो रो ॥७५॥
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आनन्द और । चतुर चकोर ॥ ७६ ॥
कांटै स्यूं कांटो कढ़े, विष दै विष ने मार । मन स्यूं ही मन नै मना, चम्पा ! चोज लगा'र ॥७७॥
कियां हुवै कचरो सफा ? स्याणा सोच विचार । चम्पा ! आश्रव रा पड्या, खुला अठारह द्वार ||७८ ||
परमारथ-पावड्यां ८३
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