________________
मैं ‘श्रमण-सागर' जैसा आज दिखता हूं, पहले नहीं था । प्रकृति में ऊफान इतना था -क्षण-भर में आपे से बाहर । मुझे सुधारने में भाईजी महाराज को बड़ी खेवट खानी पड़ी। वे, वे ही थे, जिन्होंने मेरा उचित, अनुचित सब कुछ सहा । मैं महीनोंमहीनों भाईजी महाराज से अनबोल रह जाता। हां, गुण मेरे में एक था मैंने कभी अपना स्थान नहीं छोड़ा। उनकी प्रकृति भी बड़ी कड़ी थी । यों स्वभाव सरल और स्नेहार्द्र भी हद से पार था, पर कड़ाई जब करते, वहां भी बेहद ।
३२
यह कैसा है, बताऊं ?
,
।
दिल्ली की बात है । एक दिन मेरा मूड बिगड़ा हुआ था । पटक-झटक उस समय सहज थी । जान-बूझकर नहीं किन्तु असावधानी से सफेद - पात्री सूखी करते हाथ से गिरी और टूट गयी । कोई लोहे का बर्तन तो था नहीं थी तो आखिर लकड़ी की पात्री ही । अब होश आया । भाईजी महाराज ने देख तो लिया पर कुछ नहीं बोले । मैं गया और असावधानीवश हुए प्रमाद की माफी मांगने लगा । उनकी उदारता भी उन्हीं में थी । मुस्कराकर फरमाने लगे – कुमाणस ! अब तो हुआ गुस्सा ठंडा ? 'पतली पाड़ पतली', अब तू बच्चा नहीं है, स्याणा हो गया है । तोड़ना था तो पात्री क्या, इस अहं को तोड़ता न ? इतने में आ गई साध्वी गौरांजी । उन्होंने आते ही कहा, भाईजी महाराज ! सागरमलजी स्वामी आपके बड़े विनीतसाताकारी संत हैं । इन्हें देखती हूं तो मेरा जी सोरा हो जाता है । ये मुझे अपने छोटे भाई-से लगते हैं ।
सुनते ही भाईजी महाराज ने फरमाया- हां-हां, तुम्हें तो ऐसा ही लगता है, पर मुझे लगे तब न । यह अक्कल का सागर कैसा है, बताऊं ?
'बड़ो कुमाणस सागरियो, गौरांजी ! थारो भाई, बाई ! ई नं समझाओ तो, मनै हुवै सुखदाई
२५२ आसीस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org