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________________ लाडनं में कांटा-भाटा लाडनूं का मीठा और गहरा स्वास्थ्यप्रद पानी, खुली आबो-हवा, ऊंचाई पर बसी बस्ती, आत्ममुखी दृष्टि वाले लोग, कुल मिलाकर अलभ्य विशेषताओं का धनी लाडनूं नगर अपने आपमें अनौपम्य कहा जा सकता है। श्री भाईजी महाराज को बचपन से ही अपनी मातृभूमि पर सात्विक अभिमान था। वे सदा लाडनूं की गौरवगाथा मुक्तकंठ से गाया करते। वि० सं० १६.२ का चातुर्मास बीदासर सम्पन्न कर श्री कालूगणीराज लाडनूं पधार रहे थे। 'खानपुर' के पास की कंकरीली धरती, नंगे पांव चलने वालों को अक्सर परेशान करती ही है। उस दिन चांदमलजी स्वामी अधिक परेशान हुए होंगे। उनका कवि हृदय उकता गया। सरदी के दिन । कंकरों पर चलना कठिन पड़ रहा था। इधर-उधर बाड़ के कांटे थे। इतने में पीछे से आए चम्पक मुनि (श्री भाईजी महाराज)। चांदमलजी स्वामी और चम्पक मुनि अभयराजजी स्वामी के साझ-मंडल में साथ-साथ रहते थे। चम्पक मुनि को देख चांदमलजी स्वामी बोले-'चम्पा ! यह क्या तेरा लाडनूं है ? कांटों और कांकरों से पग फूट 'लाडन में कांटा-भाटा, सुजानगढ़ में सी, बीदासर में दूध मिसरी, पोल-घोल पी। चम्पक मुनि से नहीं रहा गया। उन्होंने भी लाडनूं की प्रशस्ति में एक पद्य बनाया और जब-जब संत कहते—'लाडनूं में कांटा-भाटा' तो भाईजी महाराज जवाब में कहते-संतो ! यह लाडनूं है, इसकी होड कोई कर सकता है ? यह हो न, औरों का काम चले ! इस धरती का क्या कहना ! २२२ आसीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003057
Book TitleAasis
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages372
LanguageMaravadi, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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