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________________ श्री भाईजी महाराज ने अपनी आपबीती बताते हुए कहा- -कल तक सांयकालीन प्रतिक्रमण के पश्चात् मुनि तुलसी मुझे नित्य वन्दना करने आते । हम भाई-भाई दो-चार मिनट बात भी करते । वे इतना संकोच रखते, कभी आंख उठाकर बोले भी हों, याद नहीं आता । मेरे जैसा कठोर अनुशासन करने वाला नहीं मिलेगा, तो तुलसी-मुनि जैसा विनीत आज्ञापालक भी इरला - बिरला ही होगा । आज वे युवाचार्य थे। रंगभवन (गंगापुर) के हाल की भीतरी कोठरी में युवाचार्यश्री का आसन लगा । सन्तों की भीड़ उनको घेरे हुए थी । मैं दूर खड़ा इंतजार कर रहा था, अपने प्रिय अनुज, नयनाभिराम युवाचार्यश्री से मिलने की। भीड़ छंटी, मैं पहुंचा । युवाचार्य तुलसी के सामने समस्या थी, अब वे क्या करें। इतने दिन मुझे देखते ही वे आसन छोड़ उठ खड़े होते थे । जितना सम्मान वे निकाल में मुझे दिया करते, क्या देगा कोई अनुज अग्रज को ? लाज - लिहाज, संकोच-शर्म, आदर सम्मान और कांण-कायदा उनकी विवेक-बुद्धि का नमूना था । काम-काज उनसे मैं कम ही करवाता । उनका पूरा समय ज्ञानार्जन के लिए था । आज सारी स्थितियां बदल गयी थीं । उनकी अवसरज्ञता और तत्काल समस्या का ३६ इसे कहते हैं भ्रातृत्व निकाल लेने की क्षमता उस समय देखी, तत्काल युवाचार्य तुलसी थोड़े से पीछे ht ओर खिसके और अपना आधा आसन खाली कर, मुझे संकेत करते हुए बोलेपधारो, चम्पालालजी स्वामी ! बिराजो | मैं अभिभूत किन्तु किंकर्तव्यविमूढ था । निर्णय नहीं ले सका, अब मुझे क्या करना चाहिए। मैंने घुटने टेक, पंचाग मुद्रा मेंगुणानुवाद किये | नवीन युवाचार्यश्री ने वंदना के साथ मेरे पैर छूने का यत्न करते हुए पुनः बैठने का आग्रह किया । पर मैं I विनय मान-सम्मान में, मैं स्नेहार्द्र अखूट । केठा भाई ! बैठणी' क नहीं, कह चल्यो ऊठ ॥ २६० आसीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003057
Book TitleAasis
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages372
LanguageMaravadi, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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