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वीरमती
बीकानेर लाल कोठरी से निकलते ही उनका पहला मकान है । वैसे तो वे जैन हैं, उन पर दिनों साम्प्रदायिक वैमनस्य के कारण आपस में खूब तनाव रहा करता था । वहां भी वही हाल था। पड़ोसी और विरोध में रस लेने वाला फिर तो क्या पूछना ? उस घर की माजीका असल नाम क्या था, मैं नहीं जानता पर साधारणतया सब लोग उन्हें 'वीरमती मां' कहा करते थे।
वीरमती आभानगरी के महाराजा चन्द की सौतेली मां थी। वह बड़ी कौतुककर्मी, जादू-टोनों में माहिर और कड़क स्वभावी थी। उसके चंड-स्वभाव से सभी कांपते थे। चंड-चरित्र की वह वीरमती कथा-प्राण थी । वही हाल हमारी इस मांजी का भी था। सारा परिवार कांपे, इसमें कोई बड़ी बात नहीं, पर पूरा मोहल्ला मांजी की धाक से धूजता था। कोई भी परिचित मांजी की प्रकृति से अपरिचित नहीं था। मांजी जब राजी होती, सात हाथ की सोड़ में सोवो, पर नाराज होने के बाद वह छींट नहीं छोड़ती। पर, न जाने क्यों ऐसे लोगों से भाईजी महाराज की खूब पटती थी।
वि० सं० २००२ के जेठ की बात है। उन दिनों वीरमती मांजी के घर कमठा (चुनाई का काम चल रहा था। पिरोल दरवाजे के ऊपर मालिया बन तो गया था, पर अभी लिपाई हो रही थी। बाहरी लिपाई के लिए ऊपर से एक खाट लटकाई। खाट के उस मंचान पर चढ़े कारीगर लिपाई कर रहे थे। तीन आदमी मंची पर बैठे काम कर रहे थे। ऊपर से एक व्यक्ति और उतरने लगा। संयोगवश भाई जी महाराज उसी समय उधर से निकले।
मुनिश्री ने मिस्तरी को आवाज देते हुए कहा-अरे भाई ! देखना जरा, हमें तो निकल जाने दो। कहीं ऊपर से दीवार न खिसक जाये?
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