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अपणी अकड़ाई अजड़, खतम करै सब खेल । निज री 'चम्पक' नम्रता, मित्र मिलावै मेल ॥६६॥
भाई ने 'चम्पक' भले, तूं बकलै कर ब्हेम । भाई ही आसी भलो, आडो ओहंडी टेम ॥७॥
व्हायल चारै ब्हायलो, लै भायां स्यूं तोड़ । 'चम्पक' चुगणी ठीकरी, भर्यो घड़ो मत फोड़ ॥७१॥
'चम्पक' भाई बूकिया, भाई आंख्यां गोडा। भाई को कमजोर के ? टूट्या तोही टोडा ॥७२॥
ओपै भाई री जग्यां, भाई रो ही मेल । 'चम्पक' लुखी चीकणी, फूटी तो हि बंडेल ॥७३॥ बुरो बैर बिखबाद रो, भायां मै मत घाल । 'चम्पक' तूं चालै मती, राजनीति री चाल ॥७४।।
भाई भूखो भाव रो, रोटी भूखो रांक । सहज मान सम्मान मै, 'चम्पक' चुरा न आंख ।।७५।।
'बडो बिचारला बडी, ओछो ओछी चाल। 'चम्पक' पोटी पाव की, सवासेर मत घाल ॥७६॥
शोषणहीन-समाज री, रचना बड़ो विचार । 'चम्पक' थोथी कल्पना, कर्यां कर सरकार ॥७७।।
चितड़ो चकडोल्यां चढ्यो, राखण रोब रबाब । 'चम्पक' चांदी रो चकर, खेलो करै खराब ॥७८॥
कुण ल्यायो कुण लेयग्यो, किण संग चाली आथ । जाण-बूझ 'चम्पक' जगत, जबरन घालै बाथ ।।७।।
'चम्पक' अंत न चाह को, मांडी माथै बूक । भस्म-व्याधि, भोजन भखै, भांज सकै कद भूख ? ॥८॥
शिक्षा-सुमरणी १२५
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