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यश भी भाग्य से मिलता है
२०१६ माघ कृष्णा चतुर्दशी की बात है। आचार्यप्रवर केलवा राज-महलों में विराजे थे। मुनि खूबचन्दजी की आंत उतर गयी । गोसा उतर जाने के बाद पट्टा लगा लेना भी तो गलती थी, पर हो गयी। कटिबन्ध के दबाव से रास्ता सिकुड़ गया। भरसक प्रयत्न किये, पर आंत ऊपर नहीं चढ़ी। बेचैनी बढ़ गयी। वह तो बढ़नी ही थी। खूब मुनि जैसा रांगड़, प्रौढ़, साहसी और छाती के ठड्डे वाला आदमी भी हताश हो गया। हाय-हाय की उस स्थिति में अनेक जानकार लोगों की सभी करामातें असफल रहीं।
कोई चार घंटे के बाद राजनगर के सरकारी डॉक्टर रेउ साहब पहुंचे। उन्होंने देखा, प्रयत्न किया, ज्यों-त्यों आंत चढ़ जाए, अन्त में वे बोले-'अब ऑपरेशन के अतिरिक्त और कोई इलाज नहीं है। इन्हें राजनगर भेजो । मैं शल्य-क्रिया करूंगा। बचने का एकमात्र यही उपाय है।।
श्री भाईजी महाराज आचार्यश्री जी की सेवा में पधारे । स्थिति निवेदन की. विचार-विमर्श हुआ, वापस लौटे और मुनि खूबचन्द जी से फरमाने लगे-'देखो, खूबचन्द जी! मरना तो सामने दीख रहा है। इसका कोई विचार भी नहीं है। अब दो रास्ते हैं—एक गृहस्थों का आश्रय लेना, यह शायद तुम्हें भी पसंद नहीं, मुझे भी पसन्द नहीं। दूसरा समभाव से कष्ट सहन करना। मैं भी इस वेदना की असह्यता को पहचानता हूं। इलाज विधि के अनुसार होगा, पर तुम्हें राजनगर जाना पड़ेगा, तुम पैदल जा सको संभव नहीं है। सन्त उठाकर पहुंचाएंगे । बोलो क्या इच्छा
__ वे बोले-'मैं कहूं भी तो क्या ? आप जैसी व्यवस्था करें, मुझे मंजूर है । गुरुदेव की जो मरजी हो । मरना तो है ही पर यों तड़प-तड़पकर मरना पड़ेगा यह नहीं जाना था। जो कुछ करना हो आप ही करें, मैं संघ की शरण में हूं।'
संस्मरण २६३
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