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.. ४५ कविता में दग्धाक्षर
आचार्यश्री तुलसी ने वि० सं० २०१२ का चातुर्मास उज्जैन में किया। वहां कार्तिक पूर्णिमा को मैंने एक कविता लिखी । कविता मन लगती बनी। मुझे बहुत पसन्द आयी। कविता को दूसरी-तीसरी बार पढ़कर मैं मन-ही-मन झूम उठा। शायद मेरी अब तक की कविताओं में वह सबसे पहली स्टेज की कविता थी। अनुप्रासों की झड़ी देखते ही बनती थी। अखरोट सहज आये थे । शब्दों की दृष्टि से, भावों की दृष्टि से और लय-छन्द-बन्ध की दृष्टि से भी उसे मेरी सर्वोत्तम कविता कहूं, तो में अत्युक्ति नहीं होगी। ___ मैंने भाई सोहनलाल सेठिया (सरदारशहर) के सामने वह अपनी कृति रखी। सोहन की काव्य-छटा निराली थी। वह स्वयं प्रांजल कवि था और हिन्द का आशु कवि भी । तत्काल दिये गये विषय पर वह मार्मिक भाषा में भावपूर्ण छन्द बोला करता। मेरी और उसकी पटड़ी भी खूब जमती थी। मैंने ज्योंही अपर्न कविता कवि सोहन के सामने रखी, उसने एक बार खिलखिलाकर दाद दी । काश आज वह कविता होती।
मुझे उसी दिन सायंकाल बुखार हो गया। तबियत धीरे-धीरे बीगड़ती गयी ज्वर कभी कम, कभी अधिक, बढ़ता-घटता गया। हम प्रवासी एक गांव से दूसरे गांव पर्यटन करते हुए बड़नगर पहुंचे। मुझे कमजोरी का अहसास होने लगा बड़नगर से हमारा पड़ाव जावरा हुआ। जावरा पहुंचते-पहुंचते मुझे बुखार १०६ डिग्री पहुंच गया। बेहोशी आ गयी। घण्टों उपचार के बाद चेतना लौटी।
___ भाईजी महाराज के सामने बड़ी समस्या थी। एक ओर बुखार, दूसरी ओ विहार । मुनिश्री मुझे पीछे छोड़ना भी नहीं चाहते थे और बुखार में यों साथ ले जाना भी उचित नहीं था। दुहरे विचार ले, भाईजी महाराज आचार्यश्री के पार पहुंचे। विचार-विमर्श हुआ। मुझे जावरा ही छोड़ देने का निर्णय आया। भाईज
संस्मरण २७३
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