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________________ प्रतिदिन सैकड़ों लोग आते-जाते पर सहल-पमिति ने स्थायी डेरा जमाया। छोटे बड़े सभी समिति के सदस्य एक सरीखे, हंसते-खिलते, रलते-मिलते और रंगीले-रसीले थे । घंटों-घंटों भाईजी महाराज के पास बैठते । कभी ज्ञान-चर्चा करते तो कभी अनुभवों का आदान-प्रदान । जिज्ञासाएं चलती। कभी-कभी बीच मीठा-मीठा विनोद भी होता । एक-सी उम्र के संगी-साथी। भाईजी महाराज का मन बढ़ता गया। सहल-समिति थोड़े ही दिनों में भाईजी महाराज के मुंहलगी समिति बन गयी। बीच-बीच में कुछ लोग यह भी कहने लगे-भाईजी महाराज ने इस सबको इतार दिया है। कुल मिलाकर उन समिति के युवकों ने भाईजी महाराज का मन लगा दिया। भंवरलाल जी बरडिया जरा कोमल प्रकृति के हैं। कष्ट में कमजोर और जल्दी ही घबरा जाने वाले । साथ-साथ शरीर भी श्रम को कम बर्दास्त करता है। आज वे विहार में पैदल साथ हो गये । रारता ज्यादा लंबा तो नहीं था, पर गरमी से वे आते (आतंकित) हो गये। उनका लाल सुरख मुंह देख, भाईजी महाराज ने चाल धीमी की । बार-बार पूछते चले–'क्यूं भंवरू । के सल्ला? और धीरे चालू ?' मैंने पूछा-'महाराज । आपके भंवरू से इतना क्या है ?' भाईजी महाराज ने फरमाया-रिश्ता तो कुछ नहीं है पर भंवरू के पिता जयचन्दलालजी मेरे साथी हैं। ओलंभे के भी और शाबासी के भी। मालवा यात्रा में इन्दौर-उज्जैन के बीच एक 'तिराणा' नाम का गांव आया। उन दिनों वहां आठ घर थे। सात गुसाइयों के और एक राजपूतों का। आचार्य कालूगणी महाराज राजपूतों की कोटड़ी में विराजे । हम कुछ सन्तों ने गुसाइयों की तिबारी में जगह धारी । यात्री लोग अगले गांव चले गये। सेठ गणेशदासजी गधैया यात्रा में साथ थे। जयचन्दलालजी (वरडिया) ने गधयाजी से पूछा-आप कहे तो आज रात को यहीं सेवा करने की मनस्या है। वे रह गये । हमने दिन में ही सलाहसूत कर ली थी-यदि आज रहो तो रात में रागे (देशियां) चितारेंगे । प्रतिक्रमण के बाद हमारी गोष्ठी जमी । हम सोच रहे थे आज एकान्त है। गुरुदेव से बहुत दूर हैं। खुलकर गायेंगे। निःसंकोच भाव से हम गाने में तल्लीन हो गये। वह ठंडी रात । वह उमर, गले में जोर, मन में जोश, छोटा गांव, भिन्न-भिन्न रागरागनियों का प्रत्यावर्तन, प्रहर रात गये तक हमारी गोष्ठी चली। गाने वालों में चार-पांच मुनि थे और श्रावक जयचन्दलाल बरडिया थे । गांव के दस-पांच लोग आ गये। हमारा मजमा खूब जमा । उस रात हमने-'चन्द-चरित्र' तथा राजस्थानी लोकगीतों की धुनें दुहराई।। ____ प्रातःकाल विहार कर 'सामेर' पहुंचे । गुरुदेव एक बड़े हाल में विराजे । उसी में लकड़ी की पैडियां चढ़कर ऊपर कमरे में हम संत बैठे थे। तुलसी मुनि ने जयचन्दलाल जी को सेवा करने को कहा । वे वहां बैठे थे। अकस्मात् गुरुदेव ने ३१८ आसीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003057
Book TitleAasis
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages372
LanguageMaravadi, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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