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दोहा
सदा समर्पित सुर-सरी, सागर स्यूं सम्बन्ध । 'चम्पक' श्रीसंघ चरण में, प्रणमै छन्द-प्रबन्ध ॥१॥
नमै खमै बोही गम, गंज गरज री गन्ध । विनय-बिधा 'चम्पक' बिणे, विगत छन्द कर बन्ध ॥२॥
सहज समर्पण सुमन-वन, शोभै 'चम्पक' संघ । सुधा संघ-पति सारणा, सोने मांह सुगंध ॥३॥ इमरत आंख्यां में झर, तपै देह पर तेज । 'चम्पक' चेहरै सोम्यता, सन्त हिये मै हेज ॥४॥ विषय-वासना बुझ गई, आश पाश को अन्त। संयम समता मैं रमै, 'चम्पक' साचो सन्त ॥५॥
सन्त बहै सत्पंथ मै, ग्रन्थ छोड़ निर्ग्रन्थ । 'चम्पक' तंत उदन्त मै, लै अनन्त को अन्त ॥६॥ त्याग-विराग-तड़ाग मै, अतिशायी अनुराग। चंचरीक 'चम्पक' चुस, मुनि-पद-पद्म-पराग ॥७॥ शासण सुर-तरु सुख कर, सिद्धि-सौध-सोपान । 'चम्पक' शासण च्यानणो, आन-पान सम्मान ।।८।।
शासण शीतल छांवली, अणाधार आधार । 'चम्पक' शासण चेतना, हरण पाप हरिद्वार ॥६॥
शिक्षा-सुमरणी १२१
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