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मर्ख से मौन
आचार्यप्रवर का वि० सं० २०३१ में बहुत लम्बा दिल्ली-प्रवास हुआ। एक दिन अणुव्रत-विहार की दूसरी मंजिल पर मैं एक भाई से बातें कर रहा था। वह नामधारी तेरापंथी हमारे संघ और संघपति के विपरीत कुछ अंट-संट शिकायतें लाया था।
___ मैं उसे वस्तुस्थिति समझा रहा था। हमारी चर्चा लंबी होती गयी । हम दोनों डटकर तर्के प्रस्तुत करते रहे। चलते-चलते वह गंदी, भद्दी और अश्लील बातों पर उतर आया। मैं उसे किसी भी एक बात को सप्रमाण सिद्ध करने को कह रहा था। मैं भी अड़ गया, वह भी अड़ गया। वह कह रहा था-आप मुझे घुमाफिरा कर भूल-भुलैया में डालना चाहते हैं और मैं कह रहा था—तुम्हारी इन गंवारू और बाजारू बातों का जनता पर कोई असर होने वाला नहीं है । यदि इनमें से एक भी सत्य है तो प्रमाणित करो।
वह उत्तेजित होकर किसी एक बात को सिद्ध करने के बदले दसों और-और अंट-संट बातें उछालने लगा।
यह सब श्रीभाईजी महाराज को कब पसन्द पड़ने वाला था। उन्होंने मुझे एक बार खंखारकर संकेत किया, पर मैं नहीं समझा । समझा तो क्या नहीं, पर यों ही कहना चाहिए ध्यान नहीं दिया। हमारी चर्चा बादा-बादी चलती रही। दूसरी बार फिर पास पड़े लकड़ी के तख्ते को हिलाने के बहाने संकेत आया। फिर भी मैं नहीं उठा।
इतने में वह हिसार चातुर्मास का हवाला देते हुए एक अधमतम घटना कह गया, जो सर्वथा अश्राव्य थी। श्रीभाईजी महाराज का जी तिलमिला उठा। उन्होंने मुझे टोकते हुए फरमाया-सागरिया ।
संस्मरण ३२३
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