Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ]
[४३ अन्वयार्थ-(चन्द्रकान्तलसत्कीति) चन्द्रमा की कान्ति के समान धवल कीति से शोभायमान (जिनभक्ति परायणः) जिनभक्ति में तत्सर वह अंणिक राजा (स्वप्रजा:) अपनी प्रजा को (सदा पुत्रवत्) सदाकाल पुत्र के समान (प्रीत्यापालयन्) प्रोति से पालते हुए (संतस्थौ) सम्यक् प्रकार विराजमान था।
भावार्थ-ध्रुष्ठ गुणों से सम्पन्न महारानी चेलना के साथ महामण्डलेश्वर राजा थणिक दयाभाव पूर्वक पञ्चन्द्रिय विषयों का, न्यायपूर्वक यथोचित भोग करते हुए रानी एवं अभयकुमार आदि अनेक श्रेष्ठ पुत्रों से सहित उसी प्रकार शोभित होते थे जैसे नक्षत्रों से घिरा हुया पूर्णिमा का चन्द्रमा शोभता है । चन्द्रमा के समान धवल कोति धाले श्रणिक महाराज जिन भक्ति में सवा तत्पर रहते थे तथा स्व-पुत्र के समान प्रजाजनों का भी प्रीतिपूर्वक पालन
और रक्षण करते थे। उसके राज्य में सभी लोग सुखशान्ति से अमन चन से निवास करते थे। कहीं भो किसी को किसी प्रकार का अभाव वा दुःख नहीं था । चोर मारी यादि किसी भी प्रकार का उपदन स्तान में भी नही था । इस प्रकार समान लौकिक सुखों का अनुभव करते हुए श्रेणिक महाराज ने अपनो धवलकोति से समस्त प्राकाश मण्डल को व्याप्त कर रखा था। दिग्-दिगन्तर में उनके गुणों को गाथा गाई जाती थी । सभी सन्तुष्ट और प्रसन्न रहते थे ।।८।।
तस्य चारगुणग्रामो निर्मलो मरिणवत्तराम् । वय॑ते केन ये भूयो भावितीर्थकरः परः ॥८॥
अन्वयार्य-(तस्य) उस राजा श्रेणिक के (मणिवत्ततराम्) मणि के समान अत्यन्त (निर्मल:) उज्ज्वल (चार) सुन्दर (गुणग्रामः) गुणसमूह (केन) किसके द्वारा (वर्ण्यने) दणित हो सकते है (यो) जो (भूयः) पून:-अगले मनुष्य भव में (पर.) उत्कृष्ट (भावितीर्थकरः) भविष्यत कालोन तीर्थकर होने वाला है ।
भावार्थ-संसार में सर्वोत्कृष्ट पुण्य तीर्थकर का होता है । तीर्थकर प्रवृति पूण्य रूप है, वह षोडशकारण भावना के निमिन से बंधती है । इन १६ भावनाओं में भी प्रथग दर्शनविशुद्धि भावना प्रधान है। इसके बिना अन्य १५ भावनाय तीर्थंकर प्रकृति का बन्धन करने में समर्थ नहीं हो सकतों किन्तु इनके बिना भो अकेली दर्शनविशुद्धि भावना उस अपूर्व पुण्य रूप तीर्थकर प्रकृति का बन्ध करने में समर्थ है । पच्चोस दोषों से रहित और अट अङ्गों से सहित शुद्ध निदोष सम्यग्दर्शन की उपलब्धि का नाम दर्शनविशुद्धि है। जो जीव साधःकरण अपूर्वकरसा
और अनिवृत्तिकरण रूप परिणामों के द्वारा दर्शनमोहनीय मिथ्यात्व का खण्डन कर तीन टुकड़े कर देता है तथा उससे उत्पन्न अात्मविशुद्धि के वल पर पुन: उन तीन भागों के साथ चार अनन्तानबन्धी कषायों का भी क्षय, उपशम या क्षयोपशम करता है उसे क्षायिक, उपशम या क्षायोपशमिक सम्बग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है। लोनों में से किसी भी सम्यक्त्व वा धारी भव्य, विशेप विशुद्धि से सम्पन्न होता है और संसार के प्राणोमात्र का कल्याण करने की तीव्रतम उत्कृट भावना से तीर्थकर प्रकृति का प्रास्रव करता है । दया की चरम सीमा पर पहुंचा जीव-भव्यात्मा हो इस पद के योग्य पुण्यार्जन कर सकता है इसीलिये राजा घेणिक के