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अष्टाविंशतितमं पर्व
मालिनीवृत्तम्
श्रयमनि' भूतवेलो रुद्धरोधोऽन्तराल' श्रनिलबलविलोलैर्भूरिकल्लोलजालैः । तटवनमभिहन्ति व्यक्तमस्मैः प्ररुष्यम् मम किल बहिरस्मान्नास्ति वृत्तिर्मुषेति ॥ १७८ ॥ प्रविगणितमहत्त्वा पूयमस्मान् स्वपादः अभिहथ' किमलड घ्यं वो वृथा तौङग्यमेतत् । वयमिव किमलङध्याः किं गभीरा इतीत्थं परिवदति 'विराबैर्नून मब्धिः कुलाव्रीन् ॥१७६॥
प्रहर्षिणीवृत्तम्
श्रत्रायं भुजगशिशु बिलाभिशङकी व्यात्तास्यं तिमिमभिधावति प्रहृष्टः । तं सोऽपि स्वगलबिलावलग्न लग्नं स्वान्त्रास्था" विहितदयो न जेगिलीति ॥ १८० ॥ दोधकवृत्तम्
धृतामिष" शकः । पुनरप्यपयाति ।। १८१॥
एवमहामणिरश्मिचिकीर्ण तोयममुष्य मीनगगोऽनुसरन् सहसास्माद् वह्निभिया लोलतरङग विलोलितदृष्टिः वृद्धतरोऽसुमतिः १५ सुमतं नः । ही रथमेष तिमिङिगलशङकी पश्यति पश्य
तिमिः १७ स्तिमिताक्ष: ॥१८२॥
भुजङ्गप्रयातवृत्तम्
इहामी भुजङ्गाः सरत्नैः फणाग्रैः समुत्क्षिप्य भोगान्" खमुद्वीक्षमाणाः । विभाव्यन्त एते तरङगोरहस्तैः घृता दीपिकौघा महावाधिनेव ॥१८३॥
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भीतर अपनी देवांगनाओंके साथ बड़े वेगसे आते हुए देवोंके हजारों क्रीड़ा करनेके स्थान हैं, हजारों मनोहर वन हैं और हजारों सुन्दर द्वीप हैं तथा वे सब ऐसे जान पड़ते हैं मानो इसके भीतर बने हुए किले ही हों ।। १७७ ।। ज्वार-भाटाओंसे चंचल हुआ यह समुद्र इस वनके बाहर मेरा जाना नहीं हो सकता है इसलिये इसपर प्रकट क्रोध करता हुआ अपने किनारेके वनको वायुके वेगसे अतिशय चंचल और पृथिवी तथा आकाशके मध्य भागको रोकनेवाली अनेक लहरोंके समूहसे व्यर्थ ही ताड़न कर रहा है ।। १७८।। हे प्रभो, यह गरजता हुआ समुद्र ऐसा जान पड़ता है मानो अपने ऊंचे शब्दोंसे कुल पर्वतोंको यही कह रहा है कि हे कुलपर्वतो, तुम्हारी ऊँचाई बहुत है इसीलिए क्या तुम अपने पैरों अर्थात् अन्तके भागोंसे हम लोगोंकी ताड़ना कर रहे हो ? तुम्हारी यह व्यर्थकी ऊंचाई क्या उल्लंघन करनेके अयोग्य है ? क्या तुम हमारे समान अलंध्य अथवा गंभीर हो ? ।।१७९ ।। इधर यह सांपका बच्चा अपना बिल समझ कर प्रसन्न होता हुआ, मुख फाड़े हुए मच्छके मुखमें दौड़ा जा रहा है और वह भी अपने गले रूप बिलमें लगे हुए इस सांपके बच्चेको अपने अन्तरेंगमें संचित हुई निर्दयता के कारण निगल रहा हँ ।।१८०।। इधर यह मछलियोंका समूह पद्मराग मणिकी किरणोंसे व्याप्त हुए इस समुद्रके जलको मांस समझकर उसे लेनेके लिये दौड़ता है और फिर अकस्मात् ही अग्नि समझकर वहांसे लौट आता है ।। १८१ ।। हे देव, इधर देखिये, चंचल लहरोंसे जिसकी दृष्टि चंचल हो रही हैं और जो बहुत ही बूढ़ा है ऐसा यह मच्छ इस रथको मछलियोंको खानेवाला बड़ा मच्छ समझकर निश्चल दृष्टिसे देख रहा है, हमारा ख्याल है कि यह बड़ा मूर्ख है ।। १८२ ॥ इधर
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१ अस्थिर । अचलमित्यर्थः । २ आकाशमण्डलैः । 'भूम्याकाशरहः प्रयोगानयेषु रोधस्' । ३ तटवनाय । ४ बृथा । ५ अभिताडयथ । ६ पक्षिध्वनिभिः । ७ इव । विवृताननम् । मध्य । मध्यमं चाबलग्नं च तुद्योऽस्त्री' इत्यमर: । १० निजपुरीतद्विद्याकृतकृतयः ( ? ) । ११ भृशं गिलति । १२ पद्मराग । १३ समुद्रस्य । १४ पलल । १५ अशोभनबुद्धिः । १६ साधुज्ञातम् । १७ मत्स्यः । १८ स्तिमिता बार्द्धनिश्चलामित्यभिधानात् । १६ शरीराणि । 'भोगः सुखे स्त्रियादिभृतावहेश्च फणकाययोः' ।
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