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इत्थं स्वपुण्यपरिपाक 'जमिष्टलाभं चक्री सभागृहगतो नृपचक्रमध्ये
हरिणी
धुततटवने रक्ताशोकप्रवालपुटोद्भिदि
स्पृशति पवनं मन्दं मन्दं तरङ्गविभेदिनि ।
अनुसरसरित्सैन्यंः सार्धं प्रभुः सुखमावसज्जलनिधिजयश्लाघाशीर्भिर्जिनाननुचिन्तयन् ॥ २२१॥
श्रष्टाविंशतितमं पर्व
संश्लाघयन्' जनतया श्रुतपुण्यघोषः । शक्रोपमः पृथुनृपासनमध्यवात्सीत् ॥२२०॥
इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षण महापुराण सप्रहे पूर्वार्णवद्वारविजयवर्णनं नामाष्टाविंशं पर्व ।
संचय करना चाहिये ।। २१९ || इस प्रकार जिसने लोगों के समूहसे पुण्यकी घोषणा सुनी हैं ऐसे चक्रवर्ती भरत, अपने पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त हुए इष्ट वस्तुओंके लाभकी प्रशंसा करते हुए सभा भवन में पहुंचे और वहां राजाओंके समूहके मध्यमें इन्द्रके समान बड़े भारी राजसिहासन पर आरूढ़ हुए || २२० || जिस समय किनारे के वनको हिलानेवाला, रक्त अशोक वृक्षकी कोंपलोंके संपुटको भेदन करनेवाला और लहरोंको भिन्न भिन्न करनेवाला वायु धीरे धीरे बह रहा था उस समय समुद्रको जीतनेकी प्रशंसा और आशीर्वादके साथ साथ जिनेन्द्र भगवान्का स्मरण करते हुए भरतने गङ्गा नदीके किनारे किनारे ठहरी हुई सेनाके साथ सुख से निवास किया था ।। २२१ ।।
इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहके भाषानुवाद में पूर्व समुद्र के द्वारको विजय करनेका वर्णन करनेवाला अट्ठाईसवां पर्व समाप्त हुआ ।
१ उदयजम् । भेदिनि ।
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२ स श्लाघयन् ल० । १३ जनसमूहेन ।
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४ अधिवसति स्म ।
५ पल्लवपुटो
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