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चतुश्चत्वारिशत्तम पर्व
४११ पाहवोऽपरिहार्योऽयं ममाद्य भवता सह । अकोतिश्चाक्यो रस्मिन्नाकल्पस्थायिनी ध वम् ॥२४६॥ चको सुतेषु राज्यस्य योग्यं त्वामेव मन्यते । स्यात्तस्यापि मनःपीडा न वेत्यन्यायवर्तनात् ॥२५०॥ 'ब्रोग्धन्यायस्य भूभस्तव चैतांस्ततः क्षणात् । दुष्टान सखेचरान् सर्वान् बध्वाद्य भवतोऽपये ॥२५॥ नागमारह "तिष्ठ त्वं काष्ठान्तं प्राथितो मया । अन्यायो हि पराभूतिर्न तत्त्यागो महीयसः ॥२५२॥ कुमार, समरे हानिस्तवैव महती मया। हन्त्यात्मानमनुन्मत्तः कः स तीक्ष्णासिना स्वयम् ॥२५३।। अभव्य इव सद्धर्मम् अपकम्यु दोरितम् । प्राघातयितुमारेभे गजेन स" गजाधिपम् ॥२५४॥ तदा जयोऽप्यतिकुद्धो गजयुद्धविशारदः। नवििवजयार्द्धन दन्तघातरपातयत् ॥२५॥ नवापि कुपितेभेन्द्रनवदन्ताहतिक्षताः । अष्टच द्रार्ककीर्तीनां प्रपेतुहंतदन्तिनः ॥२५६॥ चक्रिसूनोः पुनः सेनापरितोऽयादयुयुत्सया"। "तदा तदायुर्वा "रक्षवहः क्षयमपद्यत ॥२५७॥ सोढमर्कः खलस्तेजो जयस्याशक्नुवन्निव । जयन् जयोद्ग मच्छायां संहृताशेषदीधितिः ॥२५॥ "शरैरिवोरारक्तैविमुक्तः खचरान् प्रति । जयीयैः२ स्वाङगसंलग्नः क्षरत्क्षतजरञ्जितैः ॥२५॥
गतप्रतापः "कृच्छात्मा सर्वनेत्राप्रियस्तदा । पपात कातरीभूय करालम्बितभूधरः ॥२६०॥ मेरा आपके साथ जो युद्ध चल रहा है वह आज ही बन्द कर देने योग्य है क्योंकि इससे हम दोनोंकी कल्पान्तकाल तक टिकनेवाली अपकीर्ति अवश्य होगी ॥२४९॥ चक्रवर्ती सब पुत्रों में राज्यके योग्य आपको ही मानता है, क्या आपके इस अन्यायमें प्रवृत्ति करनेसे उसके मनको पीड़ा नहीं होगी ? ॥२५०॥ भरत महाराजके न्यायमार्गका द्रोह करनेवाले तुम्हारे इन सभी दुष्ट पुरुषोंको विद्याधरोंके साथ साथ बांधकर आज क्षणभरमें ही तुम्हें सौप देता हूँ ॥२५१।। में प्रार्थना करता हूँ कि आप हाथीपर चढ़े हुए यहां क्षण भर ठहरिये क्योंकि महापुरुषोंका अन्याय करना ही तिरस्कार करना है, अन्यायका त्याग करना तिरस्कार नहीं है ॥२५२॥ हे कुमार, मेरे साथ युद्ध करने में तुम्हारी ही सबसे बड़ी हानि है क्योंकि ऐसा कौन सावधान है जो पैनी तलवारसे अपनी आत्माका स्वयं घात करे ॥२५३।। जिस प्रकार अभव्य जीव समीचीन धर्मको नहीं सुनता उसी प्रकार जयकुमारके कहे हुए वचन अर्ककीर्तिने नहीं सुने और अपने हाथीसे जयकुमारके उत्तम हाथीपर प्रहार करवाना शुरू कर दिया ॥२५४।। उस समय हाथियोंके साथ यद्ध करने में अत्यन्त निपूण जयकुमार भी अधिक क्रोधित हो उठा, उसने अपने विजयाई हाथीके द्वारा दाँतोंके नौ प्रहारोंसे अर्ककीर्ति तथा अष्टचन्द्र विद्याधरों के नौ हाथियोंको घायल करवा दिया ॥२५५।। अर्ककीति तथा अष्ट चन्द्र विद्याधरोंके नौके नौ ही हाथी क्रोधित हुए विजयार्ध हाथीके दांतोंके नौ प्रहारोंसे घायल होकर जमीन पर गिर पड़े ॥२५६॥ जिस समय जयकुमारने युद्धकी इच्छासे अर्ककीर्तिकी सेनाको चारों ओरसे घेरा उसी समय मानो उसकी आयुकी रक्षा करता हुआ ही दिन अस्त हो गया ॥२५७॥ जो अपनी कान्तिसे जासौनके फूलकी कान्तिको जीत रहा है, जिसने अपनी सब किरणें संकोच ली हैं, जो लाल लाल किरणोंसे ऐसा जान पड़ता है मानो जयकुमारने विद्याधरोंके प्रति जो बाण छोड़ थे व सब ही विद्याधरोंके निकलते हुए रुधिरसे अनुरंजित होकर उसके शरीरमें जा लगे हों, जिसका सब प्रताप नष्ट हो गया है, जो क्रूर है और सबके नेत्रोंको अप्रिय है ऐसा वह दुष्ट
१ आहवः परि-ल०। २ युद्धे सति । ३ हन्तुमिच्छन् । ४ तिष्ठात्र ल०, इ०, ५०, १०, स० । ५ क्षणपर्यन्तम् । ६ अन्यायत्यागः । ७ महात्मनः । ८ बुद्धिमान् । ६ एवमुक्तवचनं श्रुत्वा । १० मारयितुम् । ११ अर्ककीर्तिः । १२-रघातयत् ल०, अ०, प०, स०, इ०। १३ अगमत् । १४ योद्धमिच्छया । १५ यदा इ०, अ०, प० । १६ इव । १७ रक्षतीति रक्षत् । १८ दिवसः । १६ जयकुमारस्य । २० कुसुम । २१ किरणः । २२ जयकुमारसम्बन्धिभिः । २३ स्रवत् । २४ दुःखकारिस्वभावः ।
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