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चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व
४०९ कस्यचिद् क्रोधसंहारः स्मृतिश्च परमेष्ठिनि। निष्ठायामायुषोऽत्रासीद् अभ्यासात् किं न जायते ॥२३॥ हृदि नाराचनिभिन्ना वक्त्रात् स्रवदसकप्लवाः। "शिवाकृष्टान्त्रतन्त्रान्ताः' पर्यन्तव्यस्तपत्कराः ॥२३१॥ गद्धपक्षानिलोच्छिन्नमूच्र्छाः सम्प्राप्तसंज्ञकाः । समाधाय हि ते शुद्धां श्रद्धां शूरगति गताः ॥२३२॥ छिौश्चक्रेण शराणां शिरोऽम्भोजैविकासिभिः। 'रणागणोऽचितो बाभात् नत्त्य० जयजयश्रियः १२३३॥ स्वामिसम्मानदानादिमहोपरकृतिनिर्भराः। प्राप्याधमर्णता प्राणः सेवां सम्पाद्य सेवकाः ॥२३४॥ स्वप्राणव्ययसन्तुष्टैस्तद्भूभृद्भिः स्वभूभृतः१५ । लब्धपूजान् विधायान्ये धन्या नैर्ऋण्यमागमन् ॥ जयमुक्ता"ब्रुतं पेतुःभविमुक्तजयाः" शराः । अष्टचन्द्रान् प्रति प्रोच्चैः प्रदीप्योल्कोपमाः समम् ॥२३६॥ एजयप्रहितशस्त्राली निषिद्धा च विद्यया । ज्वलन्ती परितश्चन्द्रान२३ परिवेषाकृतिर्बभौ ॥२३७॥ विश्वविद्याधरावीशम् "प्राविराजात्मजस्तदा । "द्विषो सनिःशेषयाशेषानित्याह सुनाम रुषा ।।२३८॥
सोऽपि सर्वैः खगैः सार्द्ध निर्द्रतारातिविक्रमः । वह्निवृष्टिमिवाकाशे ववर्ष शरसन्ततिम् ॥२३॥ शूरवीरोंने हृदयमें अर्हन्त भगवान्को स्थापन कर प्राण छोड़े थे ॥२२८-२२९॥ किसी योद्धा के आयुकी समाप्तिके समय क्रोध शान्त हो गया था और परमेष्ठियोंका स्मरण होने लगा था सो ठीक है क्योंकि अभ्याससे क्या क्या सिद्ध नहीं होता ? ॥२३०॥ जिनके हृदय बाणोंसे छिन्न भिन्न हो गये हैं, मुँहसे रुधिरका प्रवाह बह रहा है, सियारोंने जिनकी अंतड़ियोंकी तांतोंके अन्तभाग तकको खींच लिया है और जिनके हाथ पैर फट गये हैं ऐसे कितने ही योद्धा गीधोंके पंखोंकी हवासे मूर्छारहित होकर कुछ कुछ सचेत हो गये थे और शुद्ध श्रद्धा धारणकर शूरगतिस्वर्ग गतिको प्राप्त हुए थे ॥२३१-२३२॥ चक्र नामक शस्त्रसे कटे हुए शूरवीरोंके प्रफुल्लित मुखरूपी कमलोंसे भरी हुई वह युद्धकी भूमि ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो जयकुमारकी विजयलक्ष्मीके नृत्योंसे ही सुशोभित हो रही हो ॥२३३॥ स्वामीके द्वारा पाये हुए आदर सत्कार आदि बड़े बड़े उपकारोंसे दबे हुए कितने ही सेवक लोग अपने प्राणों द्वारा स्वामीकी सेवाकर ऊऋण अवस्थाको प्राप्त हुए थे और कितने ही धन्य सेवक, अपने अपने प्राण देकर संतुष्ट हुए शत्रु राजाओंसे अपने स्वामियोंकी पूजा-प्रतिष्ठा कराकर कर्ज रहित हुए थे। भावार्थ-कितने ही सेवक लड़ते लड़ते मर गये थे और कितने ही शत्रुओंको मारकर कृतार्थ हुए थे ॥२३४-२३५।। जिन्होंने विजय प्राप्त करना छोड़ा नहीं है और जो अपनी बड़ी भारी कान्तिसे उल्काके समान जान पड़ते हैं ऐसे जयकुमारके छोड़े हुए बाण अष्टचन्द्र विद्याधरोंके पास बहुत शीघ्र एक साथ पड़ रहे थे ।।२३६॥ जयकुमारके द्वारा छोड़ी हुई शस्त्रोंकी पंक्तियों को उन विद्याधरोंने अपने विद्या बलसे रोक दिया था। इसलिये वे उन के चारों ओर जलती हुई खड़ी थीं और ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो चन्द्रमाओंके चारों ओर गोल परिधि ही लग रही हो ॥२३७॥ उसी समय आदि सम्राट्-भरतके पुत्र अर्ककीतिने बड़े क्रोधसे सब विद्याधरोंके अधिपति सुनमिसे कहा कि तुम समस्त शत्रुओंको नष्ट करो ॥२३८॥ और शत्रुओंके पराक्रमको नष्ट करनेवाला सुनमिकुमार भी अग्नि वर्षाके समान आकाशमें बाणोंके समूहकी
१ परिसमाप्तौ सत्याम् । २ रणे। ३ साध्यते ल०। ४ जम्बुकाकृष्टपुरीतत्समूहाग्रा । अन्त्रगतशस्याग्रा वा । ५ तन्त्राग्रा-ट०। ६ विक्षिप्तपादपाणयः । ७ स्पृहाम्। ८ स्वर्गम् । इन्द्रियजयवतां गतिमित्यर्थः । ६ रणरङगोऽन्विते-ल०। १० नर्तनाय। ११ जयकुमारस्य जयलक्ष्म्याः । १२ महोपकारातिशयाः । १३ ऋणप्राप्तिताम् । १४ शत्रुभूपालैः । १५ निजनृपतीन् । १६ ऋणवृद्धधनम् । ऋणान्निष्क्रान्तत्वम् । १७ जयकुमारेणोत्सृष्टाः । १८ अत्यक्तजयाः । १६ प्रदीप्त्योल्कोपमाः ल० । २० युगपत् । २१ जयकुमारेणाविद्ध। २२ शत्रुभिः । २३ अष्टचन्द्रान् परितः, मृगाङ्कान् परितः । २४ अर्ककीर्तिः । २५ शत्रून् । २६ विनाशय । २७ सुनमिः ।
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