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षट्चत्वारिंशत्तम पर्व
४७३ रात्रौ तलवरो वृष्ट्वा तं बाहयाऽद्येति तेन तत् । 'प्रतिपादनवेलायामेवायान्मन्त्रिणः सुतः ॥३०४॥ नपतेमथनो नाम्ना पृथुधीस्तं निरीक्ष्य सा । मज्जूषायां विनिक्षिप्य गणिका सर्वरक्षितम् ॥३०॥ त्वया मवीयामरणं सत्यवत्यै समर्पितम् । त्वद्भगिन्य तदानेयमित्याह नुपमैथुनम् ॥३०६॥ सोऽपि प्राक् प्रतिपाद्येतद् व्रतग्रहणसंश्रुतेः । प्रातिकूल्यमगादीावान् द्वितीयदिने पुनः ॥३०७॥ साक्षिणं परिकल्प्यनं मञ्जूषास्थं महीपतेः । सन्निधौ याचितो वित्तम् असावुत्पलमालया ॥३०८॥ न गृहीतं मयेत्यस्मिन्मिथ्यावादिनि भूभुजा । पुष्टा सत्यवती तस्य पुरस्तान्यक्षिपद्धनम् ॥३०॥ मथनाय नपः ऋध्वा खलोऽयं हन्यतामिति । प्राज्ञापयत्पदातीन् स्वान् युक्तं तन्यायवर्तिनः ॥३१०॥ “पठन्मुनीन्द्रसद्धर्मशास्त्रसंश्रवणाद् द्रुतम् । अन्यधुः प्राक्तनं जन्म विदित्वा शममागते ॥३१॥ यागहस्तिनि मांसस्य पिण्डदानमनिच्छति । तद्वीक्ष्योपायविच्छष्ठी विबुद्धचानकपडगितम् ॥३१२॥ सपिण्डपयोमिश्रशाल्योदनसमर्पितम्। पिण्डं प्रायोजयत्सोऽपि द्विरदस्तमुपाहरत् ॥३१३॥ तदा तुष्ट्वा महीनाथो वृणीष्वष्टं तवेति तम् । प्राह पश्चाद् ग्रहीष्यामोत्यभ्युपेत्य स्थितः स तु ॥३१४॥ सचिवस्य सुतं दृष्ट्वा नीयमानं शुचा नृपात् । वरमादाय तद्घातात् दुर्वृत्तं तं व्यमोचयत् ॥३१॥
दिया और उस दिनसे उसने शील व्रत ग्रहण कर लिया। किसी दूसरे दिन सर्वरक्षित नामका कोतवाल रातके समय उसके घर गया, उसे देखकर उत्पलमालाने उससे कहा कि आज मैं बाहिर की हूं-रजस्वला हूं। इधर इन दोनोंकी यह बात चल रही थी कि इतने में ही मंत्रीका पुत्र और पृथुधी नामका राजाका साला आया, उसे देखकर उत्पलमालाने सर्वरक्षितको एक संदूकर्म छिपा दिया और राजाक सालसं कहा कि आपने जो मर आभूषण अपनी बहिन सत्यवती के लिये दिये थे वे लाइये। उसने पहले तो कह दिया कि हां अभी लाता हूं परन्तु बादमें जब उसने सुना कि उसने शील व्रत ले लिया है तब वह ईर्ष्या करता हुआ प्रतिकूल हो गया। दूसरे दिन वह वेश्या सन्दूकमें बैठे हुए कोतवालको गवाह बनाकर राजाके पास गई और वहां जाकर पृथुधीसे अपना धन मांगने लगी ॥३००-३०८।। पृथुधीने राजाके सामने भी झूठ कह दिया कि मैंने इसका धन नहीं लिया है। जब राजाने सत्यवतीसे पूछा तो उसने सब धन लाकर राजाके सामने रख दिया ॥३०९॥ यह देखकर राजा अपने सालेपर बहत क्रोधित हुआ, उसने अपने नौकरोंको आज्ञा दी कि यह दुष्ट शीघ्र ही मार डाला जाय। सो ठीक ही है क्योंकि न्याय-मार्गमें चलनेवालेको यह उचित ही है ॥३१०॥ किसी एक दिन पाठ करते हुए मनिराजसे धर्मशास्त्र सनकर राजाके मुख्य हाथीको अपने पूर्व भवका स्मरण हो आया. वह अत्यन्त शान्त हो गया और उसने मांसका पिण्ड लेना भी छोड़ दिया, यह देख उपायोंके जाननेवाले सेठने हाथोकी सब चेष्टाएं समझकर घी, गुड़ और दूध मिला हुआ शालि चावलोंका भात उसे खानेके लिये दिया और हाथीने भी वह शुद्ध भोजन खा लिया ॥३११-३१३।। उस समय संतुष्ट होकर राजाने कहा कि जो तुम्हें इष्ट हो सो मांगो। सेठने कहा-अच्छा यह वर अभी अपने पास रखिये, पीछे कभी ले लूंगा, ऐसा कहकर वह सेठ सुखसे रहने लगा ॥३१४॥ इसी समय मंत्रीका पुत्र मारनेके लिये ले जाया जा रहा था उसे देखकर सेठको बहुत शोक हुआ और उसने राजासे अपना पहिलेका रक्खा हुआ वर मांगकर उस दुराचारी मंत्रीके पुत्रको
१ तलवरेण सह । २ अद्य याहीत्येतत्प्रतिपादन । ३ आनयामीत्यनुमत्य । ४ प्रसङ्गापातकथान्तरमिह ज्ञातव्यम् । ५ नीतम् । ६ भुडक्ते स्म । ७ तम् ल०, अ०, प०, स०, इ०। ८ मन्त्रिणः पुत्रम् । पुथुमतिम् ।
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