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सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व
५०१ अमरेन्द्र सभामध्ये शोलमाहात्म्यशंसनम् । जयस्य तत्प्रियायाश्च प्रकर्वति कदाचन ॥२५॥ श्रुत्वा तदादिमे कल्पे रविप्रभविमानजः। श्रीशा' रविप्रभास्येन तच्छीलान्वेषणं प्रति ॥२६॥ प्रेषिता काञ्चना नाम देवी प्राप्य जयं सधीः । क्षेत्रेऽस्मिन् भारते खेचरानेरुत्तरदिकतटे ॥२६॥ मनोहराख्यविषये राजारत्नपुराधिपः । अभूत् पिडल्गलगान्धारी सुखवा तस्य सुप्रभा ॥२६२॥ तयोविद्युत्प्रभा पुत्री नमेर्भार्या यदृच्छया । त्वां नन्दन महामेरौ क्रीडन्तं वीक्ष्य सोत्सुकाः ॥२६३॥ तदा प्रभृति मच्चित्तेऽभवस्त्व लिखिताकृतिः । त्वत्समागममेवाहं ध्यायन्ती दैवयोगतः ॥२६४॥ दष्टवत्यस्मि कान्ताभिनिवेग सोद मक्षमा । इत्यपास्तोपकण्ठस्थान स्वकीयान् स्मरावह्वला ॥२६५॥ स्वानुरागं जये व्यक्तम् अकरोद् विकृतेक्षणा । तद्दष्टचेष्टितं दृष्ट्वा मा मंस्थाः पापमीदृशम् ॥२६६॥ सोदर्या त्वं ममादायि मया मुनिवराद् व्रतम् । पराजगनाडाग संसङगसुखं मे विषभक्षणम् ॥२६७॥ महीशेनेति सम्प्रोक्ता मिथ्या सा कोपवेपिनी। उपात्तराक्षसीवेषा तं२ समुद्धत्य गत्वरी३ ॥२६॥ पुष्पावचयसंसक्तनुपकान्ताभिजिता । भीत्वा तच्छोलमाहात्म्यात् काञ्च"नाऽदृश्यतां गता ॥२६॥
अबिभ्यद्देवता चैवं शीलवत्याः परे न के। ज्ञात्वा तच्छोलमाहात्म्यं गत्वा स्वस्वामिनं प्रति ॥२७०॥ हुआ किसी समय कैलाश पर्वतके वनमें पहुंचा और किसी कारणवश सुलोचनासे कुछ दूर चला गया ॥२५७-२५८॥ उसी समय इन्द्र अपनी सभाके बीचमें जयकुमार और उसकी प्रिया सलोचनाके शीलकी महिमाका वर्णन कर रहा था उसे सनकर पहले स्वर्गके रविप्रभ विमानमें उत्पन्न हुए लक्ष्मीके अधिपति रविप्रभ नामके देवने उनके शीलकी परीक्षा करने के लिये एक काञ्चना नामकी देवी भेजी, वह बुद्धिमती देवी जयकुमारके पास आकर कहने लगी कि 'इसी भरतक्षेत्रके विजया पर्वतकी उत्तरश्रेणीमें एक मनोहर नामका देश है, उसके रत्नपुर नगरके अधिपति राजा पिङ्गल गांधार हैं, उनके सुख देनेवाली रानी सुप्रभा है, उन दोनोंकी में विद्युत्प्रभा नामकी पुत्री हूं और राजा नमिकी भार्या हूं। महामेरु पर्वतपर नन्दन वनमें क्रीड़ा करते हुए आपको देखकर मैं अत्यन्त उत्सुक हो उठी हूं। उसी समयसे मेरे चित्तमें आपकी आकृति लिख सी गई है, मैं सदा आपके समागम का ही ध्यान करती रहती हूं। दैवयोगसे आज आपको देखकर आनन्दके वेगको रोकनेके लिये असमर्थ हो गई हूं।' यह कहकर उसने समीपमें बैठे हुए अपने सब लोगोंको दूर कर दिया और कामसे विह्वल होकर तिरछी आंखें चलाती हुई वह देवी जयकुमारमें अपना अनुराग स्पष्ट रूपसे प्रकट करने लगी। उसकी दुष्ट चेष्टा देखकर जयकुमारने कहा कि तू इस तरह पापका विचार मत कर, तू मेरी बहिन है, मैंने मुनिराजसे व्रत लिया है कि मुझे परस्त्रियोंके शरीरके संसर्गसे उत्पन्न होनेवाला सुख विष खानेके समान है। महाराज जयकुमारके इस प्रकार कहनेपर वह देवी झूठमूठके क्रोधसे कांपने लगी और राक्षसीका वेष धारणकर जयकुमारको उठाकर जाने लगी। फूल तोड़नेमें लगी हुई सुलोचनाने यह देखकर उसे ललकार लगाई जिससे वह उसके शीलके माहात्म्यसे डरकर अदृश्य हो गई। देखो, शीलवती स्त्रीसे जब देवता भी डर जाते हैं तब औरोंकी तो बात ही क्या है ? वह कांचना देवी उन दोनोंके शीलका माहात्म्य जानकर अपने स्वामीके पास गई, वहां उसने उन दोनोंके उस माहात्म्यकी प्रशंसा की जिसे सुनकर वह रविप्रभ देव भी आश्चर्यसे उनके गुणोंमें प्रेम करता हुआ उन दोनोंके पास आया। उसने अपना सब
१ रविप्रभविमानोत्पन्नलक्ष्मीपतिना। २ श्रीशो ल० । ३ निरूपिता। ४ भो प्रिय । ५ एतस्मिन् प्रदेशे। ६ कामवेगम्। ७ स्वजनान् । ८ स्वीकृतम् । ६ संसर्ग-ल०, ५०, इ०, स० । १० सम्प्रोक्तं ल०। ११ पापवेपनी ट० । अशोभनं कम्पयन्ती। १२ जयम् । १३ गमनशीला। १४ सुलोचनातजिता । १५ काञ्चनाख्यामराङगना।
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