Book Title: Mahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 522
________________ सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व देहच्युतौ यदि गुरोर्गुरु' शोचसि त्वं तं 'भस्मसात्कृतिमवाप्य' विवृद्धरागाः । प्राग्जन्मनोऽपि परि कर्मकृतोऽस्य कस्माद् प्रानन्दनत्तमधिकं विदधुर्घनाथाः ॥३८२॥ नेक्षे विश्वदर्श शुणोमि न वचो दिव्यं तदङघिद्वय नमस्तनखभाविभासिमुकुटं कतुं लभे नाधुना । तस्मात् स्नेहवशोऽस्म्यहं बहतरं शोकीति चेदस्त्विदं किन्तु भ्रान्तिरियं व्यतीतविषयप्राप्त्यै भवत्प्रार्थना ॥३८३॥ त्रिज्ञानवत् त्रिभुवनैकगुरुर्गुरुस्ते स्नेहेन मोहविहितेन विनाशयः किम् । स्वोदात्ततां शतमखस्य न लज्जसे कि तस्मात्तव प्रथममुक्तितिं न वेत्सि३ ॥३८४॥ इष्टं कि किमनिष्टमत्र वितथं सङकल्प्य जन्तुर्जडः किञ्चिद्वेष्टयपि वष्टि" किञ्चिदनयोः कर्यादपि व्यत्ययम् । "तेनैनोऽनुगतिस्ततो भववन भव्योऽप्यभव्योपमो भ्राम्यत्येष कुमार्गवृत्तिरधनो" वाऽऽतडकभीदुःखितः ॥३८५॥ ही नष्ट हो गये हैं और अब वे आठ बड़े बड़े गुणोंसे सेवित हो रहे हैं, भला, इसमें क्या हानि हो गई? इसलिये अब त मोह छोड़ और शोकको जीतनके लिये विशद्ध बद्धिको धारण कर ॥३८१॥ पूज्य पिताजीका शरीर छूट जानेसे यदि तू इतना अधिक शोक करता है तो बतला, जन्मसे पहले ही उनकी सेवा करनेवाले और बढ़े हुए अनुरागको धारण करनेवाले ये देव लोग भगवान्के शरीरको भस्म कर इतना अधिक आनन्द नृत्य क्यों कर रहे हैं ? भावार्थ-ये देव लोग भी भगवान्से अधिक प्रेम रखते थे, जन्मसे पहले ही उनकी सेवामें तत्पर रहते थे फिर ये उनके शरीरको जलाकर क्यों आनन्द मना रहे हैं इससे मालूम होता है कि भगवान्का शरीर छूट जाना दुःखका कारण नहीं है तू व्यर्थ ही क्यों शोक कर रहा है ? ॥३८२॥ कदाचित् । यह कहेगा कि 'अब मैं उनके दर्शन नहीं कर रहा हूं, उनके दिव्य वचन नहीं सुन रहा हं, और उनके दोनों चरणोंमें नम्र होकर उनके नखोंकी कान्तिसे अपने मुकुटको देदीप्यमान नहीं कर पाता हूं, इसलिये ही स्नेहके वशसे आज मुझे बहुत शोक हो रहा है तो तेरा यह कहना ठीक है परन्तु बीती हुई वस्तुके लिये प्रार्थना करना तेरी भूल ही है ॥३८३॥ हे भरत, तेरे पिता तो तीनों लोकोंके अद्वितीय गुरु थे और तू भी तीन ज्ञानोंका धारक है फिर इस मोहजात स्नेहसे अपनी उत्तमता क्यों नष्ट कर रहा है ? क्या तुझे ऐसा करते हुए इन्द्रसे लज्जा नहीं आती ? अथवा क्या तू यह नहीं समझता है कि मैं इन्द्रसे पहले ही मोक्षको प्राप्त हो जाऊंगा ? ।३८४।। इस संसारमें क्या इष्ट है ? क्या अनिष्ट है ? फिर भी यह मुर्ख प्राणी व्यर्थ ही संकल्प कर किसीसे द्वेष करता है, किसीको चाहता है और कभी दोनोंको उलटा समझ लेता है, इसलिये ही इसके पापकी परम्परा चलती रहती है और इसलिये ही यह भव्य होकर भी . १ बहलं यथा भवति तथा । २ देहम् । ३ भस्माधीनम् । ४ नीत्वा । ५ उत्पत्तरादावपि । ६ परिचर्याकराः । ७ वृषभस्य । ८ तस्य नखकान्त्या भासत इति। ६ भो त्रिज्ञानधारिन् भरत । १० अज्ञानकृतेन । ११ भवदुदात्तत्वम् । १२ शतमखात् । १३ न जानासि किम् । १४ वाञ्छति । १५ कारणेन । १६ पापानुगतिः । १७ निर्धन इव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568