Book Title: Mahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 525
________________ ५१४ परिचितयतिहंसो' धर्मष्टि निषिञ्चन नभसि कृतनिवेशो निर्मलस्तुङगवृत्तिः। फलमविकलमन्यं भव्यसस्येषु कुर्वन् व्यहरदखिलदेशान् शारदो वा स मेघः ॥३६७॥ विहृत्य सुचिरं विनयजनतोपकृत्स्वायुषो, महर्तपरिमास्थितौ' विहितसस्क्रियो विच्यतौ। तनुत्रितयबन्धनस्य गुणसारमूत्तिः स्फुरन् जगत्त्रयशिखामणिःसुखनिधिः स्वधाम्नि स्थितः ॥३९८॥ सर्वेऽपि ते वृषभसेन मुनीशमुख्याः सौख्यं गताः सकलजन्तुषु शान्तचित्ताः । कालक्रमेण यमशीलगुणाभिपूर्णा निर्वाणमापुरमितं गुणिनो गणीन्द्राः ॥३६॥ यो नेतेव पृथु जघान दुरिताराति चतुस्साधनो येनाप्तं कनकाश्मनेव विमलं रूपं स्वमाभा स्वरम् । प्राभेजुश्चरणौ सरोजजयिनौ यस्यालिनो वाऽमरा . स्तं त्रैलोक्यगुरु पुरु श्रितवतां श्रेयांसि वः स क्रियात् ॥४००॥ योऽभूत्पञ्चदशो विभुः कुलभृतां तीर्थेशिनां चाग्निमो दृष्टो येन मनुष्यजीवन विधिर्मुक्तेश्च मार्गो महान् । बोधो रोध विमुक्तवृसिरखिलो यस्योदयाद्यन्तिमः१० स श्रीमान जनकोऽखिला"वनिपतराद्यः स दद्याच्छियम् ॥४०१॥ नहीं है अर्थात् सभी वस्तुएं उसे साध्य हैं ॥३९६॥ मुनिरूपी हंस जिनसे परिचित हैं, जो धर्मकी वर्षा करते रहते हैं, जो आकाशमें निवास करते हैं, निर्मल हैं, उत्तमवृत्तिवाले हैं (पक्षमें ऊंचे स्थानपर विद्यमान रहते हैं) और जो भव्य जीवरूपी धानोंमें मोक्षरूपी पूर्ण फल लगानेवाले हैं ऐसे भरत महाराजने शरद् ऋतुके मेघके समान समस्त देशोंमें विहार किया ॥३९७॥ चिरकालतक विहारकर जिन्होंने शिक्षा देने योग्य जनसमूहका बहुत भारी कल्याण किया है ऐसे भरत महाराजने अपनी आयुकी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति बाकी रहनेपर योगनिरोध किया और औदारिक, तैजस तथा कार्माण इन तीन शरीररूप बन्धनोंके नष्ट होनेपर सम्यक्त्व आदि सारभूत गुण ही जिनकी मूर्ति रह गई है, जो प्रकाशमान हैं, जगत्त्रयके चूड़ामणि हैं और सुखके भाण्डार हैं ऐसे वह भरतेश्वर आत्मधाममें स्थित हो गये अर्थात मोक्ष ॥३९८।। जो समस्त जीवोंके विषयमें शान्तचित्त हैं, उत्तम सुखको प्राप्त हैं, यम शील आदि गुणोंसे पूर्ण हैं, गुणवान् हैं और गण अर्थात् मनिसमूहके इन्द्र हैं ऐसे वृषभसेन आदि मुख्य मुनिराज भी कालक्रमसे अपरिमित निर्वाणधामको प्राप्त हुए ॥३९९।। जिन्होंने नेताकी तरह चार आराधनारूप चार प्रकारकी सेनाको साथ लेकर पापरूपी विशाल शत्रुको नष्ट किया था, जिन्होंने सुवर्ण पाषाणके समान अपना देदीप्यमान स्वरूप प्राप्त किया है, भ्रमरोंके समान सब देवलोग जिनके कमलविजयी चरणोंकी सेवा करते हैं और जो तीन लोकके गुरु हैं ऐसे श्री भगवान् वृषभदेवकी सेवा करनेवाले तुम सबको वे ही कल्याण प्रदान करनेवाले हों ॥४००। जो कुलकरोंमें पन्द्रहवें कुलकर थे , तीर्थ करोंमे प्रथम तीर्थ कर थे, जिन्होंने मनुष्योंकी जीविका १ परिवेष्टितयतिमुख्यः । २ भव्यजनसमूहस्योपकारि। ३ मुहूर्तपरिसमास्थितौ सत्याम् । ४ सख्यं ल०। ५ सेनापतिरिव। ६ चतुर्विधाराधनसाधनः। ७ आ समन्ताद् भास्वरम् । ८ जीवितकल्पः । ६ आवरणविभुक्तः । १० उत्पन्नवान्। ११ भरतस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568