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महापुराणम्
लोपोनकुलार्योऽस्माद् एतस्मात्समनोरथः। ततोऽपि शान्तमदनस्ततः सामानिकामरः ॥३७६॥ . राजाऽपराजितस्तस्मादहमिन्द्रस्ततोऽजनि । ततो ममानुजो जातो जयसेनोऽयमूजितः ॥३७७॥
इत्यस्मिन्भवसडाकटे भवभूतः स्वेष्टरनिष्टस्तथा।
संयोगः सहसा वियोगचरमः सर्वस्य नन्वीदृशम् । त्वं जाननपि कि विषण्णहृदयो विश्लिष्टकर्माष्टको
निर्वाण भगवानवापदतुलं तोषे विषादः कुतः ॥३७॥ वयमपि चरमाडगाः सङगमाच्छद्धबुद्धेः
सकलमलविलोपापादितात्मस्वरूपा । निवपमसुखसारं चक्रवत्तिस्तदीयं
पदमचिरतरेण प्राप्नुमोऽनाप्यमन्यः॥३७६॥ भवतु सुहृदां मृत्यौ शोकः शुभाशुभकर्मभिः
- भवति हि स चेत्तेषामस्मिन्पुनर्जननावहः । विनिहतभव प्रायें तस्मिन् स्वयं समुपागते
कथमयमहो धीमान कर्याच्छचं यदि नो रिपुः ॥३८०॥ अष्टापि दुष्टरिपवोऽस्य समूलतूल'
नष्टा गुणैर्गुरुभिरष्टभिरेष जुष्टः । किं नष्टमत्र निधिनाथ जहीहि मोहं।
'सन्धेहि शोकविजयाय धियं विशुद्धाम् ॥३८१॥ जयन्त हुआ, फिर अहमिन्द्र हुआ और अब वहांसे पृथिवीपर आकर गुणसेन नामका गणधर हुआ है ॥३७४-३७५।। जयसेनका जीव पहले लोलुप नामका हलवाई था, फिर नेवला हुआ, उसके बाद भोगभूमिका आर्य हुआ, फिर मनोरथ नामका देव हुआ, उसके पश्चात् राजा शान्तमदन हुआ, फिर सामानिक देव हुआ, तदनन्तर राजा अपराजित हुआ, फिर अहमिन्द्र हुआ और अब मेरा छोटा भाई अतिशय बलवान् जयसेन हुआ है ॥३७६-३७७।। श्री वृषभसेन गणधर चक्रवर्ती भरतसे कह रहे हैं कि इस संसाररूपी संकटमें इसी प्रकार सब प्राणियोंको इष्ट-अनिष्ट वस्तुओंका संगम होता है और अन्तमें अकस्मात् ही उसका नाश हो जाता है, तू यह सब जानता हुआ भी इतना खिन्नहृदय क्यों हो रहा है ? भगवान् वृषभदेव तो आठों कर्मोको नष्टकर अनुपम मोक्षस्थानको प्राप्त हुए हैं फिर भला ऐसे संतोषके स्थानमें विषाद क्यों करता है ? ॥३७८॥ हे चक्रवर्तिन्, हम सब लोग भी चरमशरीरी हैं, शुद्ध बुद्धिको धारण करनेवाले भगवानके समागमसे सम्पूर्ण कर्ममलको नष्टकर आत्मस्वरूपको प्राप्त हुए हैं और अनुपम सुखसे श्रेष्ठ तथा अन्य मिथ्यादृष्टियोंके दुर्लभ उन्हीं भगवान्के पदको हम लोग भी बहुत शीघ्र प्राप्त करेंगे ।।३७९॥ इष्ट मित्रोंकी मृत्यु होनेपर शोक हो सकता है क्योंकि उनकी वह मृत्यु शुभ अशुभ कर्मोंसे होती है और फिर भी इस संसारमें उनका जन्म करानेवाली होती है, परन्तु जिसने संसारका नाश कर दिया है और निरन्तर जिसकी प्रार्थना की जाती है ऐसा सिद्ध पद यदि स्वयं प्राप्त हो जावे तो इस बुद्धिमान् मनुष्यको यदि वह शत्रु नहीं है तो शोक कैसे करना चाहिये ? भावार्थ-हर्षके स्थानमें शत्रुको ही शोक होता है, मित्रको नहीं होता इसलिये तुम सबको आनन्द मानना चाहियं न कि शोक करना चाहियं ॥३८०।। हे निधिपते, भगवान् वृषभदेवको आठों ही दुष्ट शत्र जड़ और शाखा सहित बिलकूल
१ वृषभसेनभरतादयः । २ पुरोः सम्बन्धि । ३ अप्रापणीयम् । ४ मृत्युः । ५ संसारे । ६ मृत्यौ । ७ कारणसहितम्। ८ सेवितः । ६ सम्यग् धारय ।
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