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महापुराणम्
ततो भस्म समादाय पञ्चकल्याणभागिनः । वयं चैवं भवामेति स्वललाटे भुजद्वये ॥३४॥ कण्ठे हृदयदेशच तेन' संस्पृश्य भक्तितः। तत्पवित्रतमं मत्वा धर्मरागरसाहिताः ॥३५०॥ तोषाद् सम्पादयामासुः सम्भूयानन्दनाटकम् । सप्तमोपासकाधास्ते सर्वेऽपि ब्रह्मचारिणः ॥३५१॥ गार्हपत्याभिधं पूर्व परमाहवनीयकम् । दक्षिणाग्नि ततो न्यस्य सन्ध्यासु तिसृषु स्वयम् ॥३५२॥ तच्छिखित्रयसान्निध्य चक्रमातपवारणम् । जिनेन्द्रप्रतिमाश्चैवा स्थाप्य मन्त्रपुरस्सरम्॥३५३॥ तास्त्रिकालं समभ्यर्च्य गृहस्थविहितादराः । भवतातिथयों यूयमित्याचख्युरुपासकान् ॥३५४॥ स्नेहेनेष्टवियोगोत्थः प्रदीप्तः शोकपावकः । तदा प्रबुद्धमप्यस्य चेतोऽ धाक्षीदधीशितुः ॥३५५॥ गणी वृषभसेनाख्यस्तच्छोकापनिनीषया । प्राक्रस्त वक्तुं सर्वेषां स्वेषां व्यक्तां भवावलीम् ॥३५६।। जयवर्मा भवे पूर्वे द्वितीयेऽभून्महाबलः । तृतीये ललिताङगाख्यो वनजङ्घश्चतुर्थके ॥३५७॥ पञ्चमे भोगभूजोऽभूत् षष्ठेऽयं श्रीधरोऽमरः । सप्तमे सुविधिः क्षमाभूद् अष्टमेऽच्युतनायकः ॥३५८॥ नवमे वजनाभीशो दशोऽनुत्तरान्त्यजः । ततोऽवतीर्य सर्वेन्द्रवन्दितो वृषभोऽभवत् ॥३५६॥ धनश्रीरादिमे जन्मन्यतो निर्णायिका ततः। स्वयंप्रभा ततस्तस्माच्छीमत्यार्या ततोऽभवत् ॥३६०॥ स्वयंप्रभः सुरस्तस्माद् अस्मादपि च केशवः । ततः प्रतीन्द्रस्तस्माच्च धनदत्तोऽहमिन्द्रताम् ॥३६१॥
गतस्ततस्ततः श्रेयान दानतीर्थस्य नायकः । प्राश्चर्यपञ्चकस्यापि प्रथमोऽभूत प्रवर्तकः ॥३६२॥ करनेवाली अग्नि स्थापित की, इस प्रकार इन्द्रोंने पृथिवीपर तीन प्रकारकी अग्नि स्थापित की। तदनन्तर उन्हीं इन्द्रोंने पंच कल्याणकको प्राप्त होनेवाले श्री वृषभदेवके शरीरकी भस्म उठाई और 'हम लोग भी ऐसे ही हों' यही सोचकर बड़ी भक्तिसे अपने ललाटपर दोनों भुजाओंमें, गलेमें और वक्षःस्थलमें लगाई । वे सब उस भस्मको अत्यन्त पवित्र मानकर धर्मानुरागके रससे तन्मय हो रहे थे ॥३४७-३५०॥ सबने मिलकर बड़े संतोषसे आनन्द नामका नाटक किया और फिर श्रावकोंको उपदेश दिया कि 'हे सप्तमादि प्रतिमाओंको धारण करनेवाले सभी ब्रह्मचारियो, तुम लोग तीनों संध्याओंमें स्वयं गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि इन तीन अग्नियोंकी स्थापना करो, और उनके समीप ही धर्मचक्र, छत्र तथा जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाओं की स्थापनाकर तीनों काल मन्त्रपूर्वक उनकी पूजा करो। इस प्रकार गृहस्थोंके द्वारा आदर सत्कार पाते हुए अतिथि बनो' ॥३५१-३५४॥
इधर उस समय इष्टके वियोगसे उत्पन्न हुई और स्नेहसे प्रज्वलित हुई शोकरूपी अग्नि भरतके प्रबुद्ध चित्तको भी जला रही थी ॥३५५॥ जब भरतका यह हाल देखा तब वृषभसेन गणधर भरतका शोक दूर करनेकी इच्छा से अपने सब लोगोंके पूर्वभव स्पष्ट रूपसे कहने लगे ॥३५६॥ उन्होंने कहा कि वृषभदेवका जीव पहले भवमें जयवर्मा था दूसरे भवमें महाबल हुआ, तीसरं भवमं ललिताङ्गदव और चौथं भवमं राजा वनजंघहुआ। पांचवें भवमं भोगभमिका आर्य हुआ। छठवें भवमें श्रीधरदेव हआ, सातवें भवमें सविधि राजा हआ। आठवें भवमें अच्युतेन्द्र हुआ, नौवें भवमें राजा वज्रनाभि हुआ, दशवें भवमें सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुआ और वहांसे आकर सब इन्द्रोंके द्वारा वन्दनीय वृषभदेव हुआ है ॥३५७-३५९।। श्रेयान् का जीव पहले भवमें घनश्री था, दूसरे भवमें निर्णामिका, तीसरे भवमें स्वयंप्रभा देवी, चौथे भवमें श्रीमती, पांचवें भवमें भोगभूमिकी आर्या, छठवें भवमें स्वयंप्रभदेव, सातवें भवमें केशव, आठवें भवमें अच्युतस्वर्गका प्रतीन्द्र, नौवें भवमें धनदत्त, दशवें भवमें अहमिन्द्र हुआ और वहांसे
१ भस्मना। २ भस्म । ३ संस्थाप्य। ४ चावस्थाप्य ल०, ५०, इ०, स० । ५ पात्रतयाभीक्षकाः। ६ चक्रिणः । ७ दहति स्म । ८ भरतस्य शोकमपनेतुमिच्छया । ६ प्रारभते स्म । १० सर्वार्थसिद्धिजः ।
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