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सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व प्रायुर्वायुरयं' मोहो भोगो भागी' हि सङगमः । वपुः पापस्य दुष्पात्रं विद्युल्लोला विभूतयः ॥२३६॥ "मार्गविध शहेतुत्वाद् यौवनं गहनं वनम् । या रतिविषयेष्वषा गवेषयति साऽरतिम् ॥२३७॥ सर्वमेतत्सुखाय स्याद् यावन्मतिविपर्ययः' । प्रगुणायां मतौ सत्यां किं तत्त्याज्यमतः परम् ॥२३८॥ चित्तद्रुमस्य चेद् वृद्धिः अभिलाषविषाङकुरैः । कथं दुःखफलानि स्युः सम्भोगविटपेषु नः ॥२३॥ भुक्तो भोगो दशाङगोऽपि यथेष्टं सुचिरं मया। मात्रामात्रेऽपि नात्रासीत्तृप्तिस्तुष्णाविघातिनी ॥२४०॥ अस्तु वास्तु समस्तं च सडकल्पविषयीकृतम् । इष्टमेव तथाप्यस्मान्नास्ति व्यस्ताऽपि नि तिः ॥२४१॥ किल स्त्रीभ्यः सुखावाप्तिः पौरुष किमतः परम् । दैन्यमात्मनि सम्भाव्यसौख्यं स्यां परमः पुमान् । इति श्रीपालचक्रेशः सन्त्यजन वक्रतां धियः । अक्रमेणाखिलं त्यक्त सचक्रं मतिमातनोत् ॥२४३॥ ततः सुखावतीपुत्रं नरपालाभिधानकम् । कृताभिषेकमारोप्य समुत्तुङगं निजासनम् ॥२४४॥ जयवत्यादिभिः स्वाभिर्देवीभिर्धरणीश्वरैः। वसुपालादिभिश्चामा संयमं प्रत्यपद्यत ॥२४॥ स बाहयमन्तरडगं च तपस्तत्वा यथाविधि । क्षपकणिमारहय "मासेन (?) हतमोहकः ॥२४६॥ ययाख्यातमवाप्योरुचारित्रनिष्कषायकम् । ध्यायन् द्वितीयशुक्लेन वीचाररहितात्मना ॥२४७॥ उसी प्रकार चक्रवर्ती भी अपना चक्र (चक्ररत्न) घुमाकर मिट्टीसे उत्पन्न हुए रत्न या कर आदिसे अपनी आजीविका चलाता है-भोगोपभोगकी सामग्री जुटाता है इसलिये इस चक्रवर्ती के साम्राज्यको धिक्कार है ॥२३५।। यह आयु वायुके समान है, भोग मेघके समान हैं, इष्टजनोंका संयोग नष्ट हो जानेवाला है, शरीर पापोंका खोटा पात्र है और विभूतियां बिजलीके समान चंचल हैं ॥२३६।। यह यौवन समीचीन मार्गसे भ्रष्ट करानेका कारण होनेसे सघन वनके समान है और जो यह विषयों में प्रीति है वह द्वषको ढूँढ़नेवाली है ॥२३७॥ इन सब वस्तुओं से सुख तभी तक मालूम होता है जब तक कि बुद्धिमें विपर्ययपना रहता है। और जब बुद्धि सीधी हो जाती है तब ऐसा जान पड़ने लगता है कि इन वस्तुओंके सिवाय छोड़ने योग्य और क्या होगा? ॥२३८॥ जब कि अभिलाषारूपी विषके अंकुरोंसे इस चित्तरूपी वृक्षकी सदा वृद्धि होती रहती है तब उसकी संभोगरूपी डालियोंपर भला दुःखरूपी फल क्यों नहीं लगेंगे ? ।।२३९॥ मैंने इच्छानुसार चिरकालतक दसों प्रकारके भोग भोगे परन्तु इस भवमें तृष्णाको नष्ट करनेवाली तृप्ति मुझे रंचमात्र भी नहीं हुई ॥२४०॥ यदि हमारी इच्छाके विषयभूत सभी इष्ट पदार्थ एक साथ मिल जाये तो भी उनसे थोड़ा सा भी सुख नहीं मिलता है ॥२४१॥ स्त्रियोंसे सुखकी प्राप्ति होना ही पुरुषत्व है ऐसा प्रसिद्ध है परन्तु इससे बढ़कर और दीनता क्या होगी? इसलिये अपने आत्मामें ही सच्चे सुखका निश्चय कर पुरुष हो सकता हूंपुरुषत्वका धनी बन सकता हूं ॥२४२॥ इस प्रकार बुद्धिकी वक्रताको छोड़ते हुए श्रीपाल चक्रवर्तीने चक्ररत्न सहित समस्त परिग्रहको एक साथ छोड़नेका विचार किया ॥२४३॥ तदनन्तर उसने नरपाल नामक सुखावतीक पुत्रका राज्याभिषेक कर उस अपने ब सिंहासनपर बैठाया और स्वयं जयवती आदि रानियों तथा वसुपाल आदि राजाओंके साथ दीक्षा धारण कर ली ॥२४४-२४५। उन्होंने विधिपूर्वक वाह्य और अन्तरङ्ग तप तपा, क्षपक श्रेणीमें चढ़कर मोहरूपी शत्रुको नाश करनेसे प्राप्त होनेवाला कषायरहित यथाख्यात नामका उत्कृष्ट चारित्र प्राप्त किया, वीचाररहित द्वितीय शुक्ल ध्यानके द्वारा आत्मस्वरूपका
१ वायुवेगी। २ मेघोल । ३ विनाशी। ४ इष्टसंयोगः । ५ सन्मार्गच्युतिकारणत्वात् । ६ स्रक्चन्दनादि । ७ मतेायामः, मोहः । ८ इष्टस्रक्कामिन्यादिकादन्यत्। ६ अत्यल्पकालेऽपि। १० अल्पापि। ११ सुखम् । १२ कुशलाकुशलसमाचरणलक्षणं पौरुषम् । १३ सङ्कल्पसुखम्। १४ अहं परमपुरुषो भवेयम्। १५ मोहारातिजयार्जितम् ल०, प०, अ०, स०, इ० । १६ एकत्ववितर्कवीचाररूपद्वितीयशुक्लध्यानेन ।
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