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सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व
तदा पुत्रवियोगेन सा सर्वदयिताऽचिरात् । स्त्रीवेदनिन्दनान्मृत्वा सम्प्रापज्जन्म पौरुषम् ॥ २१२ ॥ ततः समुद्रदत्तोऽपि सार्थेनामा समागतः । श्रुत्वा स्वभार्यावृत्तान्तं निन्दित्वा भ्भ्रातरं निजम् ॥२१३॥ श्रेष्ठिनेऽनपराधाया गृहवेशनिवारणात् । प्रकुप्यन्नितरां कृत्यं कः सहेताविचारितम् ॥ २१४॥ ज्येष्ठे न्यायगतं योग्य मयि स्थितवति स्वयम् । श्रेष्ठित्वमयमध्यास्त इति श्रेष्ठिनि कोपवान् ॥ २१५॥ 'वैश्रवणदत्तोऽपि स ससागरदत्तकः " । सार्द्धं समुद्रदत्तेन मात्सर्याच्छे ष्ठिनि स्थिताः ॥२१६॥ दुस्सहे तपसि श्रेयो मत्सरोऽपि क्वचित् नृणाम् । श्रन्येद्युजितशत्रुं तं दृष्ट्वा श्रेष्ठी कुतो भवान् ॥ २१७॥ 'समुद्रदत्तसारूप्यं दधत्संसद मागतः । इति पप्रच्छ सोऽप्यात्मागमन क्रममब्रवीत् ॥२१८॥ नान्यो मद्भागिनेयोऽयमिति तद्धस्तसंस्थिताम् । मुद्रिकां वीक्ष्य निश्चित्य निःपरीक्षकतां " निजाम् ॥ मैथुनस्य" च संस्मृत्य तस्मै सर्वश्रियं सुताम् । धनं श्रेष्ठिपदं चासौ दत्वा निर्विण्णमानसः ॥ २२० ॥ जयधामा " जयभामा जयसेना" तथाऽपरा । जयदत्ताभिधाना च परा सागरदत्तिका ॥२२१॥ सा वैश्रवणदत्ता" च पर चोत्पन्नबोधकाः । संजातास्तंः सह श्रेष्ठी संयमं प्रत्यपद्यत ॥२२२॥ मुनिरतिवरं प्राप्य चिरं विहितसंयमाः । एते सर्वेऽपि कालान्ते स्वर्गलोकं समागमन् ॥२२३॥
२११|| सर्वदयिताने पुत्रके वियोगसे बहुत दिनतक स्त्रीवेदकी निन्दा की और मरकर पुरुषका जन्म पाया ।।२१२ ॥ तदनन्तर समुद्रदत्त भी अपने झुण्डके साथ वापिस आ गया और अपनी स्त्रीका वृत्तान्त सुनकर अपने भाईकी निन्दा करने लगा । सेठने अपराधके बिना ही उसकी स्त्रीको घरमें प्रवेश करनेसे रोका था इसलिये वह सेठपर अत्यन्त क्रोध करता रहता था सो ठीक ही है क्योंकि जो कार्य बिना विचारे किया जाता है उसे भला कौन सहन कर सकता है ? ॥२१३ - २१४ ।। कुछ दिन बाद वैश्रवण सेठ सागरदत्तसे यह कहकर क्रोध करने लगा कि 'जब मैं बड़ा हूं, और योग्य हूं तो न्यायसे मुझे सेठ पद मिलना चाहिये, मेरे रहते हुए यह सेठ क्यों बन बैठा है' । इसी प्रकार सागरदत्त और समुद्रदत्त भी सेठक साथ ईर्ष्या करने लगे ।।२१५–२१६ ॥ आचार्य कहते हैं कि कठिन तपश्चरणके विषयमें की हुई मनुष्यों की ईर्ष्या भी कहीं कहीं अच्छी होती है परन्तु अन्य सब जगह अच्छी नहीं होती । किसी एक दिन सेठ सर्वद्धितने जितशत्रुसे पूछा कि तू समुद्रदत्तकी समानता क्यों धारण कर रहा है-तेरा रूप उसके समान क्यों है ? और तू सभामें किसलिये आया है ? तब जितशत्रुने भी अनुक्रमसे अपने आनेका सब समाचार कह दिया ।। २१७ - २१८ ।। उसी समय सेठकी दृष्टि उसके हाथ में पहनी हुई अंगूठीपर पड़ी, उसे देखकर उसने निश्चय कर लिया कि 'यह मेरा भानजा ही है, दूसरा कोई नहीं है । उसे अपनी और अपने बहनोईकी अपरीक्षकता ( बिना विचारे कार्य करने) की याद आ गई और उसे सर्वश्री नामकी पुत्री, बहुत सा धन और सेठका पद देकर स्वयं विरक्तचित्त हो गया ।। २१९ - २२० ।। उसी समय जितशत्रुको पालनेवाला जयधाम विद्याधर, उसकी स्त्री जयभामा, जयसेना और जयदत्ता नामकी अपनी स्त्रियां, वैश्रवणदत्तकी स्त्री सागरदत्ता और वैश्रवणदत्तकी बहिन वैश्रवणदत्ता तथा और भी अनेक लोगोंको आत्मज्ञान उत्पन्न हुआ। उन सबके साथ साथ सेठने रतिवर मुनिके समीप जाकर संयम धारण.
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१ वणिक्समूहेन सह । २ सर्वदयिताय । ३ चुकोप । ४ सर्वदयिते । ५ स वै -ल०, अ०, स०, इ० । ६ सागरदत्तसहितः । ७ श्रेष्ठिनः ल०, प०, इ०, स० अ० । ८ समुद्रदत्तस्य समानरूपताम् । सभाम् । १० विचारशून्यताम् । ११ सागरदत्तस्य विचारशून्यताम् । १२ निजभागिनेयजितशत्रवे । १३ सर्वदयितश्रेष्ठी । १४ जितशत्रुवर्धनविद्याधरदम्पती । १५ सर्वदयितस्य भायें । १६ वैश्रवणदत्तस्य
भार्या ।
१७ सागरदत्तस्य भार्या ।
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