Book Title: Mahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 515
________________ ५०४ महापुराणम् चतुष्पदादिभिस्तिर्यग्जातिभिश्चाभिषेवितः। चतुस्त्रिशदतीशेष विशेषलक्षितोदयः ॥२६८) प्रात्मोपाधिविशिष्टावबोधक सुखवीर्यसद् । देहसौन्दर्यवासोक्त सप्तसंस्थानसजगतः ॥२६॥ प्रातिहार्याष्टकोद्दिष्टनष्टघातिचतुष्टयः । वृषभाद्यन्वितार्थाष्टसहलाह्वयभाषितः ॥३०॥ विकासितविनेयाम्बुजावलिर्वचनांशुभिः। संवृताञ्जलिपङकेजमुकुलेनाखिलेशिना ॥३०१॥ भरतेन समभ्यर्च पृष्टोधर्ममभाषत । धियते धारयत्युच्च विनेयान् "कुगतेस्ततः ॥३०२॥ धर्म इत्युच्यते सद्भिश्चतुर्भेदं समाश्रितः। सम्यग्दृकज्ञानचारित्रतपोरूपः कृपापरः ॥३०३॥ जीवादिसप्तके तत्त्वे श्रद्धानं यत् स्वतोऽञ्जसा। "परप्रणयनाद् वा तत् सम्यग्दर्शनमुच्यते ॥३०४॥ शडकादिदोषनिर्मुक्तं भावत्रयविवेचितम् । तेषां जीवादिसप्तानां संशयादिविवर्जनात् ॥३०॥ याथात्म्पेन परिज्ञानं सम्यग्ज्ञानं समादिशेत् । यथा कर्मास्रवो न स्याच्चारित्रं संयमस्तया ॥३०६॥ निर्जरा कर्मणां येन तेन वृत्तिस्तपो मतम् । चत्वार्येतानि मिश्राणि कषायः स्वर्गहेतवः ॥३०७॥ निष्कषायाणि नाकस्य मोक्षस्य च हितैषिणाम् । चतुष्टयमिदं वम मुक्तेर्दुष्प्रापमङगिभिः ॥३०॥ मिथ्यात्वमवताचारः प्रमादाः सकषायता३ । योगाः शुभाशुभा जन्तोः कर्मणां बन्धहेतवः ॥३०॥ सेवा कर रहे हैं, चौंतीस अतिशय विशेषोंसे जिनका अभ्युदय प्रकट हो रहा है, जो केवल आत्मा से उत्पन्न होनेवाले विशिष्ट ज्ञान, विशिष्ट दर्शन, विशिष्ट सुख और विशिष्ट वीर्यको प्राप्त हो रहे हैं, जो शरीरकी सुन्दरतासे युक्त हैं, जो सज्जाति आदि सात परम स्थानोंसे संगत हैं, जो आठ प्रातिहार्योसे युक्त हैं, जिन्होंने चार घातिया कर्म नष्ट कर दिये हैं, जो वृषभ आदि एक हजार आठ नामोंसे कहे जाते हैं और जिन्होंने भव्य जीवरूपी कमलोंके वनको प्रफुल्लित कर दिया है ऐसे भगवान् वृषभदेवके पास जाकर मुकुलित कमलके समान हाथ जोड़े हुए चक्रवर्ती भरतने उनकी पूजा की और धर्मका स्वरूप पूछा तब भगवान् इस प्रकार कहने लगे-- जो शिष्योंको कुगतिसे हटाकर उत्तम स्थानमें पहुंचा दे सत् पुरुष उसे ही धर्म कहते हैं । उस धर्मके चार भेद हैं-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप। यह धर्म कर्तव्य प्रधान है ॥२८७-३०३॥ अपने आप अथवा दूसरेके उपदेशसे जीव आदि सात तत्त्वोंमें जो यथार्थ श्रद्धान होता है वह सम्यग्दर्शन कहलाता है ॥३०४॥ यह सम्यग्दर्शन शंका आदि दोषोंसे रहित होता है तथा औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक इन तीन भावों द्वारा इसकी विवेचना होती है अर्थात् भावोंकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनके तीन भेद हैं। संशय, विपर्यय और अनध्यवसायका अभाव होनेसे उन्हीं जीवादि सात तत्त्वोंका यथार्थ ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान कहलाता है। जिससे कर्मोंका आस्रव न हो उसे चारित्र अथवा संयम कहते हैं । ॥३०५-३०६॥ जिससे कर्मोंकी निर्जरा हो ऐसी वृत्ति धारण करना तप कहलाता है। ये चारों ही गण यदि कषाय सहित हों तो स्वर्गके कारण हैं और कषायरहित हों तो आत्माका हित चाहनेवाले लोगोंको स्वर्ग और मोक्ष दोनोंके कारण हैं। ये चारों ही मोक्षके मार्ग हैं और प्राणियोंको बड़ी कठिनाईसे प्राप्त होते हैं ।।३०७-३०८॥ मिथ्यात्व, अव्रताचरण, (अविरति), प्रमाद, कषाय और शुभ-अशुभ योग ये जीवोंके कर्मबन्धके कारण हैं ॥३०९।। १ अतिशय । २ आत्मा उपाधिः कारणं यस्य। ३ वीर्यगः ल०, प०, इ०, अ०, स०। प्रशस्तसौन्दर्यवास । समवसरण। ४ सौन्दर्यवान् स्वोक्तसप्त-ल०, प०, इ०, अ०, स०। ५ अभ्युदयनिःश्रेयसरूपोन्नतस्थाने । ६ भव्यान् । ७ दुर्गतेः सकाशात् अपसार्य । ८ ततः कारणात् । ६ दयाप्रधानः । क्रियापरः ल० । १० परोपदेशात् । ११ औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकभावैनिर्णीतम् । १२ विसर्जनात् ल०। १३ सकषायत्वम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568