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महापुराणम्
प्रान्ते स्वर्गादिहागत्य जयधामा तदातनः । वसुपालोऽत्र सञ्जातो जयभामाऽप्यजायत ॥ २२४॥ 'जयवत्यात्तसौन्दर्या जयसेनाऽजनिष्ट सा । पिप्पला जयदत्ता तु वत्यन्तमदनाऽभवत् ॥२२५॥ विद्युद्वेगाऽभवद् वैश्रवणदत्ता कलाखिला' । जाता सागरदत्तापि स्वर्गादेत्य सुखावती ॥२२६॥ तदा सागरदत्ताख्यः स्वर्गलोकात समागतः । पुत्रो हरिवरो जातः स पुरुरवसः प्रियः ॥ २२७॥ समुद्रदत्तो ज्वलन वेगस्याजनि विश्रुतः । तनूजो धूमवेगाख्यो विद्याविहितपौरुषः ॥ २२८ ॥ स वैश्रवणदत्तोऽपि भूतोऽत्राशनि वेगकः । श्रेष्ठी स सर्वदयितः श्रीपालस्त्वभिहाभवः ॥ २२६॥ त्वं जामातुर्निराकृत्या' सनाभिभ्यो वियोजितः । तदा त्वद्द्द्वेषिणोऽस्मिँश्च तव द्वेषिण एव ते ॥ २३०॥ तदा प्रियास्तवात्राऽपि सञ्जाता नितरां प्रियाः । श्रहिंसयाऽर्भक' स्यासीद् बन्धुभिस्तव " सङ्गमः ॥२३१॥ तत्तपःफलतो जातं चत्रित्वं सकलक्षितेः । सर्वसङ्गपरित्यागान्मक्षु मोक्षं गमिष्यसि ॥२३२॥ श्रथोदीरिततीर्येशवचनाकर्णनेन ते । सर्वे परस्परद्वेषाद् विरमन्ति स्म विस्मयात् ॥२३३॥
जन्म रोगजरामृत्यू निहन्तु सन्त तानुगान् । सन्निधाय धियं धन्योऽधासीद्धर्मामृतं ततः ॥२३४॥ धिगिदं चत्रिसाम्राज्यं कुलालस्येव जीवितम् । भुक्तिरचक्रं परिभ्राम्य मृदुत्पन्नफलाप्तितः ॥ २३५॥ कर लिया । वे सभी लोग चिरकालतक संयमका साधन कर आयुके अन्तमें स्वर्ग गये ॥२२१२२३|| वहांकी आयु पूरी होनेपर स्वर्गसे आकर पहलेका जयधाम विद्याधर यहां राजा वसुपाल हुआ है, जयभामा वसुपालकी सुन्दरी रानी जयावती हुई है, जयसेना पिप्पली हुई है, जयदत्ता मदनावती हुई है, वैश्रवणदत्ता सब कलाओंमें निपुण विद्युद्वेगा हुई है, सागरदत्ता स्वर्गसे आकर सुखावती हुई है, उस समयका सागरदत्त स्वर्गसे आकर पुरूरवाका प्यारा पुत्र हरिवर हुआ है, समुद्रदत्त ज्वलनवेगका प्रसिद्ध पुत्र हुआ है जो कि अपनी विद्याओंसे ही अपना पौरुष प्रकट कर रहा है, वैश्रवणदत्त अशनिवेग हुआ है और सर्वदयित सेठ यहां श्रीपाल हुआ है जो कि तू ही है ।।२२४-२२९ ॥ तूने पूर्वभवमें अपने जंमाई ( भानेज जितशत्रु) को उसकी मातासे अलग कर दिया था इसलिये तुझे भी इस भवमें अपने भाई बन्धुओंसे अलग होना पड़ा है, पूर्वभवमें जो वैश्रवणदत्त, सागरदत्त तथा समुद्रदत्त तेरे द्वेषी थे वे इस भवमें भी तुझसे द्वेष करनेवाले धूमवेग, अशनिवेग और हरिवर हुए हैं । उस भवमें जो तुम्हारी स्त्रियां थीं वे इस भवमें भी तुम्हारी अत्यन्त प्यारी स्त्रियां हुई हैं । तुमने अपनी बहिन के बालककी हिंसा नहीं की थी इसलिये ही तेरा इस भवमें अपने भाई बन्धुओंके साथ फिरसे समागम हुआ है। तूने उस भवमें जो तपश्चरण किया था उसीके फलसे सम्पूर्ण पृथिवीका चक्रवर्ती हुआ है और अन्तमें सब परिग्रहों का त्याग कर देनेसे तू शीघ्र ही मोक्ष पा जायगा || २३० - २३२ ॥ | इस प्रकार तीर्थंकर भगवान् गुणपालके कहे हुए वचनोंको सुनकर सब लोगोंने आश्चर्यपूर्वक अपना परस्पर का सब वैर छोड़ दिया ॥२३३॥
तदनन्तर पुण्यात्मा श्रीपालने सदासे पीछे लगे हुए जन्म, रोग, जरा और मृत्युको नष्ट करनेके लिये बुद्धि स्थिर कर धर्मरूपी अमृतका पान किया ॥ २३४ ॥ | वह सोचने लगा कि यह चक्रवर्तीका साम्राज्य कुम्हारकी जीवनीके समान है क्योंकि जिस प्रकार कुम्हार अपना चक्र (चाक) घुमाकर मिट्टी से बने हुए घड़े आदि बर्तनोंसे अपनी आजीविका चलाता है
१ तत्कालभवः । २ श्रीपालस्याग्रमहिषी जाता । ३ पिप्पली ल०, प०, इ० अ०, स० । ४ सम्पूर्णकला ।
५ पुरुरवस इति विद्याधरस्य । ६ भगिनीपुत्रस्य निराकरणेन । ७ तत्काले । अहिंसनेन । ६ तव भगिनीशिशोः । १० पुनर्बान्धवैः सह संयोगः । ११ निरन्तरानुगमनशीलान् । १२ पपौ । धेट् पाने इति धातुः । १३ भोजन किया । १४ चक्ररत्नम् घटक्रियायन्त्री च । १५ क्षेत्रोत्पन्नफलप्राप्तितः । मृत्पिण्डोत्पन्नप्राप्तितश्च ।
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