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सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व
कान्ते तत्रान्यदप्यस्ति प्रस्तुतं स्मर्यते त्वया। श्रीपालचक्रिसम्बन्धमित्यप्राक्षीत् स तां पुनः॥१॥ बाढं स्मरामि सौभाग्यभागिनस्तस्य वृत्तकम् । 'तवैवाद्येक्षितं वेति सा प्रवक्तुं प्रचक्रमे ॥२॥ जम्बूद्वीपे विदेहेऽस्मिन् पूर्वस्मिन्युण्डरीकिणी । नगरी नगरीवासौ वासवस्यातिविश्रुता ॥३॥ श्रीपालवसुपालाख्यौ सूर्याचन्द्रमसौ च तौ। जित्वा महीं सहैवावतः स्मेव नयविक्रमौ ॥४॥ जननी वसुपालस्य कुबेरश्रीदिनेऽन्यदा । वनपाले समागत्य केवलावगमोऽभवत् ॥५॥ गणपालमनीशोऽस्मत्पतेः 'सरगिराविति । निवेदितवति क्रान्त्वा पुरः सप्तपदान्तरम् ॥६॥ प्रणम्य वनपालाय दत्वाऽसौ पारितोषिकम् । पौराः सपर्यया सर्वेऽप्याययुरिति घोषणाम् ॥७॥ विधाय प्राक् स्वयं प्राप्य भगवन्तमवन्दत । श्रीपालवसुपालौ च ततोऽनु समुदौ गतौ ॥८॥ प्रमदाख्यं वनं प्राप्य सद्रुमैरम्यमन्तरे । प्राग्जगत्पालचक्रेशो यस्मिन्न्यग्रोध पादपे ॥६॥ देवताप्रतिमालक्ष्ये स्थित्वा जग्राह संयमम् । तस्याधस्तात् समीक्ष्यक्ष्यं" प्रवृत्तां नृत्तमावरात् ॥१०॥ तयोः५ कुमारः श्रीपालः पुरुषो नर्तयत्ययम् । अस्तु स्त्रीवेषधार्यत्र स्त्री चेत्पुंरूपधारिणी ॥११॥ स्यादेव स्त्री प्रनृत्यन्ती नृत्तं युक्तमिदं भवेत् । इत्याह तद्वचः श्रुत्वा नटी मूर्छामुपागता ॥१२॥
यह सुनकर जयकुमारने सुलोचनासे फिर पूछा कि हे प्रिये, इस कही हुई कथामें श्रीपाल चक्रवर्तीसे सम्बन्ध रखनेवाली एक कथा और भी है, वह तुझे याद सुलोचनाने कहा हां, सौभाग्यशाली श्रीपाल चक्रवर्तीकी कथा तो मुझे ऐसी याद है मानो मैंने आज ही देखी हो, यह कहकर वह उसकी कथा कहने लगी ॥१-२॥ इस जम्बू द्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्रमें एक पुण्डरीकिणी नामकी नगरी है जो कि इन्द्रकी नगरी-अमरावतीके समान अत्यन्त प्रसिद्ध है।॥३॥ सर्य और चन्द्रमा अथवा नय और पराक्रमके समान श्रीपाल
चन्द्रमा अथवा नय और पराक्रमके समान श्रीपाल और वसपाल नामके दो भाई समस्त पृथिवीको जीतकर साथ ही साथ उसका पालन करते थे ॥४॥ किसी एक दिन मालीने आकर वसुपालकी माता कुबेरश्रीसे कहा कि सुरगिरि नामक पर्वतपर आपके स्वामी गुणपाल मुनिराजको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, यह सुनकर उसने सामने सात पेंड चलकर नमस्कार किया, मालीको पारितोषिक दिया और नगरमें घोषणा कराई कि सब लोग पूजाकी सामग्री साथ लेकर भगवान्के दर्शन करनेके लिये चलें , उसने स्वयं सबसे पहले जाकर भगवान्की वन्दना की। माताके पीछे ही श्रीपाल और वसुपाल भी बड़ी प्रसन्नतासे चले ॥५-८॥ मार्गमें वे एक उत्तम वनमें पहुंचे जो कि अच्छे अच्छे वृक्षोंसे सुन्दर था और जिसमें देवताकी प्रतिमासे युक्त किसी वट वृक्षके नीचे खड़े होकर महाराज जगत्पाल चक्रवर्तीने संयम धारण किया था। उसी वृक्षके नीचे एक दर्शनीय नृत्य हो रहा था, उसे दोनों भाई बड़े आदरसे देखने लगे ॥९-१०॥ देखते देखते कुमार श्रीपालने कहा कि यह स्त्रीका वेष धारण कर पुरुष नाच रहा है और पुरुषका रूप धारण कर स्त्री नाच रही है। यदि यह स्त्री स्त्रीके ही वेषमें नृत्य करती तो बहुत ही अच्छा नृत्य होता। श्रीपालकी यह बात सुनकर नटी मूच्छित
१तत्रैवा-अ०, स० । यथैवा- ल०, प०, इ०। २ प्रत्यक्षं दृष्टमिव । ३ चितो ट० । संयोजितौ। ४ अवारक्षताम्। ५ मुनीशस्य । ६ सुरगिरिनाम्नि पर्वते । ७ कुबेरश्रीः। ८ पूजया । ९ आगच्छेयुः। १० शुभवृक्षैः। ११ वट । 'न्यग्रोधो बहुपाद् वटः' इत्यभिधानात् । १२ वटस्य । १३ आलोच्य। १४ दर्शनीयम्। १५ वसुपालश्रीपालयोः । १६ चेत् ।
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