Book Title: Mahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 504
________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व 'तवाशीर्वादसन्तुष्टः संविष्टो मातृसन्निधौ । सुखावतीप्रभावेण युष्मदन्तिकमाप्तवान् ॥ १६५॥ क्षेमेति तयोर प्राशंसत्तां नृपानुजः । सतां स सहजो भावो यत्स्तुवन्त्युपकारिणः ॥ १६६ ॥ वसुपालमहीपालप्रश्नाद् भगवतोदितः । स्थित्वा विद्याधरश्रेण्यां बहुलम्भान् समापिवान् ॥ १६७॥ ततः सप्तदिनैरेव सुखेन प्राविशत् पुरम् । सञ्चितोजितपुण्यानां भवेदापच्च सम्पदे ॥ १६८ ॥ 'वसुपाल कुमारस्य वारिषेणादिभिः समम् । कन्याभिरभवत् कल्याणविधिविविधद्धिकः ॥ १६२ ॥ स श्रीपाल कुमारश्च 'जयावत्यादिभिः कृती । तदा चतुरशीतीष्टः कन्यकाभिरलङकृतः ॥ १७० ॥ सूर्याचन्द्रमसौ वा तौ स्वप्रभाव्याप्तदिक्तटौ । पालयन्तौ धराचकं चिरं निविशतः स्म शम् ॥ १७१ ॥ जात्यां समुत्पन्नो गुणपालो गुणोज्ज्वलः । श्रीपालस्यायुधागारे चक्रं च समजायत ॥ १७२॥ स सर्वोश्चर्युक्त भोगाननुभवन् भृशम् । शकलीलां व्यडम्विष्ट लक्ष्म्या " लक्षितविग्रहः ॥१७३॥ प्रभू ज्जयावती भ्रातुस्तनूजा जयवर्मणः । जयसेना ह्वया कान्तेस्सा" सेनेव" विजित्वरी ॥१७४॥ मनोवेगोशनिवर: शिवाख्योऽशनिवेगवाक् । हरिकेतुः परे चोच्चैः क्ष्माभुजः खगनायकाः ॥ १७५ ॥ १" जयसेनाख्य मुख्याभिस्तेषां " तुग्भिः " सहाभवत् । विवाहो गुणपालस्य स ताभिः प्राप्तसम्मदः ॥ १७६ ॥ वचन, कायकी शुद्धि धारण करनेवाले श्रीपालने बहुत देरतक गुणपाल जिनेन्द्रकी स्तुति की, माता और भाईको देखकर उनका योग्य विनय किया और फिर उन दोनोंके आशीर्वादसे संतुष्ट होकर वह माताके पास बैठ गया । उसने माता और भाईके सामने यह कहकर सुखावतीकी प्रशंसा की कि मैं इसके प्रभावसे ही कुशलतापूर्वक आपलोगोंके समीप आ सका हूं सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पुरुषोंका जन्मंसे ही ऐसा स्वभाव होता है कि जिससे वे उपकार करनेबालोंकी स्तुति किया करते हैं ।।१६४ - १६६ ।। महाराज वसुपालके प्रश्नके उत्तरमें भगवान् ने जैसा कुछ कहा था उसीके अनुसार उस श्रीपालने विद्याधरोंकी श्रेणीमें रहकर अनेक लाभ प्राप्त किये थे ।। १६७ ।। तदनन्तर वह सात दिनमें ही सुखसे अपने नगर में प्रविष्ट हो गया सो ठीक ही है क्योंकि प्रबल पुण्यका संचय करनेवाले पुरुषोंको आपत्तियां भी सम्पत्ति के लिये हो जाती हैं ॥१६८॥ नगरमें जाकर वसुपाल कुमारका वारिषेणा आदि कन्याओंके साथ विवाहोत्सव हुआ, वह विवाहोत्सव अनेक प्रकारकी विभूतियोंसे युक्त था ।। १६९ ।। उसी समय चतुर श्रीपाल कुमार भी जयावती आदि चौरासी इष्ट कन्याओंसे अलंकृत - सुशोभित हुए ।। १७० ॥ अपनी क्रान्ति दिग्दिगन्तको व्याप्त करनेवाले सूर्य और चन्द्रमाके समान पृथिवीका पालन करते हुए दोनों भाई चिरकाल तक सुखका उपभोग करते रहे ।। १७१ ।। कुछ दिन बाद श्रीपालकी जयावती रानीके गुणोंसे उज्ज्वल गुणपाल नामका पुत्र उत्पन्न हुआ और इधर आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ ॥ १७२ ॥ | जिसका शरीर लक्ष्मीसे सुशोभित हो रहा है ऐसा वह श्रीपाल चक्रवर्तीके कहे हुए सब भोगोंका अत्यन्त अनुभव करता हुआ इन्द्रकी लीलाको भी उल्लंघन कर रहा था ।।१७३ || जयावतीके भाई जयवर्माके जयसेना नामकी पुत्री थी जो अपनी कान्ति से सेना के समान सबको जीतनेवाली थी ।। १७४ ।। इसके सिवाय मनोवेग, अशनिवर, शिव, अशनिवेग, हरिकेतु तथा और भी अनेक अच्छे अच्छे विद्याधर राजा थे, जयसेनाको आदि लेकर १ कुबेरश्रीवसुपालयोराशीर्वचन । २ सुखावत्याः सामर्थ्येन । ३ स्तौति स्म । ४ श्रीपालः । ५ कन्यादिप्राप्तिः । ६ प्राप्तः सन् । ७ सप्तदिनानन्तरमेव । ८ आत्मीयपुण्डरीकिणीपुरम् । ६ वटवृक्षाधो नृत्यसम्बन्धिनी । १० प्रियतरुणीभिः, पट्टाभिरित्यर्थः । ११ सुखमन्वभूताम् । १२ तिरस्करोति स्म । व्यलघिष्ट ल० । १३ लक्ष्म्यालिङगित अ० स० । लक्ष्मीलक्षित प०, ल० । १४ कान्त्या इ०, प०, अ०, स०, ल० | १५ चमूरिव । १६ जयशीला । १७ जयसेनादिप्रधानाभिः । १८ मनोवेगादीनाम् । १६ पुत्रीमिः । Jain Education International ४९३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568