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महापुराणम्
कदाचित् काललब्ध्यादिचोदितोऽभ्यर्णनिवृतिः । विलोकयन्नभोभागम् श्रकस्मादन्धकारितम् ॥ १७७॥ चन्द्रग्रहणमालोक्य धिगत' स्यापि चेदियम् । अवस्था संसृतौ पापग्रस्तस्यान्यस्य का गतिः ॥ १७८ ॥ इति निर्विद्य सञ्जातजातिस्मृतिरुदात्तधीः । स्वपूर्वभवसम्बन्धं प्रत्यक्षमिव संस्मर ॥ १७६ ॥ पुष्कराsपरे भागे विदेहे पद्मकाह्वये । विषये विश्रुते कान्त पुराधीशोऽवनीश्वरः ॥ १८०॥ रथान्तकनकस्तस्थ वल्लभा कनकप्रभा । तयोर्भूत्वा 'प्रभापास्तभास्करः कनकप्रभः ॥ १८१ ॥ तस्मिन्नन्येद्युरुद्यान दष्टा सर्पेण मत्प्रिया । विद्युत्प्रभा ह्वया तस्या वियोगेन विषण्णवान् ॥ १८२ ॥ सार्धं समाधिगुप्तस्य समीपे संयमं परम् । सम्प्राप्तवानतिस्निग्धः पितृमातृसनाभिभिः ॥ १८३॥ तत्र सम्यक्त्वशुद्धयादिषोडश प्रत्ययान् भृशम् । भावयित्वा भवस्यान्ते" जयन्ताख्यविमानजः ' ।। १८४ ॥ प्रान्ते ततोऽहमागत्य' जातोऽत्रैवमिति स्फुटम् । समुद्रदत्तेनादित्य" गतिर्वायुरथा ह्वयः २ ॥१८५॥ श्रेष्ठी कुबेरकान्तश्च लौकान्तिकपदं गताः । बोधितस्तैः समागत्य गुणपालः प्रबुद्धवान् ॥ १८६॥ मोहपाशं समुच्छिद्य तप्तवांश्च तपस्ततः । घातिकर्माणि निर्मूल्य सयोगिपदमागमत् ॥ १८७॥ यशःपालः सुखावत्यास्तनू जस्तेन संयमम् । गृहीत्वा सह तस्यैव गणभृत्प्रथमोऽभवत् ॥ १८८॥
उन सब राजाओं की पुत्रियोंके साथ गुणपालका विवाह हुआ । इस प्रकार वह गुणपाल उन कन्याओंके मिलने से बहुत ही हर्षित हुआ ।। १७५-१७६॥
अथानन्तर - किसी समय जिसका मोक्ष जाना अत्यन्त निकट रह गया है ऐसा गुणपाल काललब्धि आदिसे प्रेरित होकर आकाशकी ओर देख रहा था कि इतनेमें उसकी दृष्टि अकस्मात् अन्धकारसे भरे हुए चन्द्रग्रहणकी ओर पड़ी, उसे देखकर वह सोचने लगा कि इस संसारको धिक्कार हो, जब इस चन्द्रमाकी भी यह दशा है तब संसारके अन्य पापग्रसित जीवोंकी क्या दशा होती होगी ? इस प्रकार वैराग्य आते ही उस उत्कृष्ट बुद्धिवाले गुणपालको जाति स्मरण उत्पन्न हो गया जिससे उसे अपने पूर्वभवके सम्बन्धका प्रत्यक्षकी तरह स्मरण होने लगा ॥१७७ - १७९ ।। उसे स्मरण हुआ कि पुष्करार्ध द्वीपके पश्चिम विदेहमें पद्मक नामका एक प्रसिद्ध देश है, उसके कान्तपुर नगरका स्वामी राजा कनकरथ था । उसकी रानीका नाम कनकप्रभा था, उन दोनोंके मैं अपनी प्रभासे सूर्यको तिरस्कृत करनेवाला कनकप्रभ नामका पुत्र हुआ था । किसी दिन एक बगीचेमें विद्युत्प्रभा नामकी मेरी स्त्रीको सांपने काट खाया, उसके वियोगसे मैं विरक्त हुआ और अपने ऊपर अत्यन्त स्नेह रखनेवाले पिता माता तथा भाइयोंके साथ साथ मैंने समाधिगुप्त मुनिराजके समीप उत्कृष्ट संयम धारण किया था ।। १८० - १८३ ।। वहां मैं दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओंका अच्छी तरह चिन्तवन कर आयुके अन्तमें जयन्त नामके विमान में अहमिन्द्र उत्पन्न हुआ था ।। १८४|| और अन्तमें वहांसे चयकर यहां श्रीपालका पुत्र गुणपाल हुआ हूं । वह इस प्रकार विचार ही रहा था कि इतनेमें ही *समुद्रदत्त, +आदित्यगति, कुवायुरथ और सेठ कुबेरकान्त जो कि तपश्चरण कर लौकान्तिक देव हुए थे उन्होंने आकर समझाया । इस प्रकार प्रबोधको प्राप्त हुए गुणपाल मोहजालको नष्ट कर तपश्चरण करने लगे और घातिया कर्मोंको नष्ट कर सयोगिपद - तेरहवें गुण स्थानको प्राप्त हुए ।। १८५-१८७।। सुखावतीका पुत्र यशपाल भी उन्हीं गुणपाल जिनेन्द्रके पास दीक्षा धारण कर
१ चन्द्रस्य । २ - रुदारधीः अ०, स०, ल० । ३ कान्त्या निराकृत । ४ कारणानि । ५ आयुषस्यान्ते । ६ अहमिन्द्रः । ७ स्वर्गापुरते । ८ स्वर्गात् । पूर्वभवसम्बन्धं प्रत्यक्षमिव संस्मरन्निति सम्बन्धः । १० प्रियकान्ताया: जनकेन सह । ११ हिरण्यवर्मणो जनकः । १३ उक्तलौकान्तिकामरैः ।
१२ प्रभावन्त्याः पिता ।
* प्रियदत्ताका पिता, हिरण्यवर्माका पिता, प्रभावतीका पिता, 8 कुबेरमित्रका पिता ।
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