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सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व उपायः प्रतिबोयनां तदा प्रश्रयपूर्वकम् । इति विज्ञापयामास काचित्तं भाविचक्रिणम् ॥१३॥ सुरभ्यविषये श्रीपुराधिपः श्रोषराह्वयः । तद्देवी श्रीमती तस्याः सुता जयवतीत्यभूत् ॥१४॥ तज्जातो चकिगो देवी आविनीत्यादिशन्विदः । अभिज्ञानं च तस्यैतत् नटनट्योविवेत्ति' यः॥१५॥ भेदं स चक्रवर्तीति तत्परीक्षितुमागताः । पुण्याद् दुष्टस्त्वमस्माभिनिधिकल्पो यदृच्छया ॥१६॥ अहं प्रियरति मा सुतेयं नर्तकी मम । ज्ञेया मदनवेगाख्या पुरुषाकारधारिणी ॥१७॥ नटोऽयं बासबो नाम ख्यातः स्त्रोवेषधारकः। तच्छ त्वा नपतिस्तुष्ट्वा तां सन्तर्प्य यथोचितम् ॥१८॥ गुरु वन्दितुमात्मीयं गच्छन् सुरगिरि ततः । अश्वं केनचिदानीतम् आरुहयासक्तचेतसा ॥१६॥ "प्रधावयदसौ किञ्चिद् अन्तरं धरणीतले । गत्वा गगनमारुह्य व्यक्तीकृतखगाकृतिः ॥२०॥ न्यग्रोधपादपावःस्थप्रतिमावासिना अशम् । देवेन तजितो भीत्वाऽशनिवेगोऽमुचत् खगः ॥२१॥ कुमारं पर्णलव्याख्यविद्यया स्वनियुक्तया। रत्नावर्तगिरेनध्नि स्थितं तं सन्ति भाविनः ॥२२॥ बड्वोऽप्यस्य जम्मा इत्याहीत्वा निवृत्तवान् । देवः सरसि कस्निश्चित् स्नानादिविधिना श्रमम् ॥२३॥ मार्ग स्थितनुदय तमेकस्पात सुधागृहात् । आगत्य राजपुत्रोऽयमिति ज्ञात्वा यथोचितम् ॥२४॥ दृष्ट्वा षड्राजकन्यास्ताः स्ववृत्तान्तं न्यवेदयन् । स्वगोत्रकुलनामादि निदिश्य खचरेशिना ॥२५॥
बलादशनियोन वपनस्पिनिवेशिताः । इति तत्प्रोक्तमाकर्ण कुमारस्थानुकम्पिनः ॥२६॥ हो गई ॥११-१२॥ उसी समय अनेक उपायोंसे नटीको सचेत कर कोई स्त्री उस होनहार चक्रवर्ती श्रीपालसे विनयपूर्वक इस प्रकार कहने लगी ॥१३॥ कि सुरम्य देशके श्रीपुर नगरके राजाका नाम श्रीधर है उसकी रानीका नाम श्रीमती है और उसके जयवती नामकी पुत्री है ॥१४॥ उसके जन्मके समय ही निमित्तज्ञानियोंने कहा था कि यह चक्रवर्तीकी पट्टरानी होगी और उस चक्रवर्तीको पहिचान यही है कि जो नट और नटीके भेदको जानता हो वही चक्रवर्ती है, हम लोग उसीकी परीक्षा करनेके लिये आये हैं, पुण्योदयसे हम लोगोंने निधिके समान इच्छानुसार आपके दर्शन किये हैं ।।१५-१६।। मेरा नाम प्रियरति है, यह पुरुषका आकार धारण कर नृत्य करनेवाली मदनवेगा नामकी मेरी पुत्री है और स्त्रीका वेष धारण करनेवाला यह वासव नामका नट है यह सुनकर राजाने संतुष्ट होकर उस स्त्रीको योग्यतानुसार संतोषित किया और स्वयं अपने पिताकी वन्दना करनेके लिये सुरगिरि नामक पर्वतकी ओर चला, मार्गमें कोई पुरुष घोड़ा लाया उसपर आसक्तचित्त हो श्रीपालने सवारी की और दौड़ाया। कुछ दूरतक तो वह घोड़ा पथिवीपर दौडाया परन्तु फिर अपना विद्याधरका आकार प्रकट कर उसे आकाशमें ले उड़ा। उस वट वृक्षके नीचे स्थित प्रतिमाके समीप रहनेवाले देवने उस विद्याधरको ललकारा, देवकी ललकारसे डरे हुए अशनिवेग नामके विद्याधरने अपनी भेजी हुई पर्णलधु विद्यासे उस कुमार श्रीपालको रत्नावर्त नामके पर्वतकी शिखरपर छोड़ दिया । देवने देखा कि उस पर्वतपर रहकर ही उसे बहुत लाभ होनेवाला है इसलिये वह कुमारको साथ लिये बिना ही लौट गया। कुमार भी किसी तालाबमें स्नान आदि कर मार्गमें उत्पन्न हुए परिश्रमको दूर कर बैठे ही थे कि इतने में एक सफेद महलसे छह राजकन्याएं निकलकर आई और कुमारको 'यह राजाका पुत्र है' ऐसा समझकर यथायोग्य रीतिसे दर्शन कर अपना समाचार निवेदन करने लगीं। उन्होंने अपने गोत्र-कूल और नाम आदि बतलाकर कहा कि 'अशनिवेग नामके विद्याधरने हम लोगोंको यहां जबर्दस्ती लाकर पटक दिया है' कन्याओंकी यह बात
१ जयवत्या जननसमये। ५ नाम्ना ल०, अ०, ५०, स०, इ० । ६ विद्याधराकारः ।
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२ विद्वांसः। ३ परिचायक चिह्नम् । ४ विशेषेण जानाति । ६ वनात् (प्रमथवनात्) । ७ गमयति स्म। ८ मायाश्वः ।
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