________________
सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व
४८३
fararisवलोक्य त्वाम् अनुरक्ताऽभवत्त्वया । न त्याज्येति तदाकयं स विचिन्त्योचितं वचः ॥ ४० ॥ मोपनयनेऽग्राह व्रतं गुरुभिरर्पितम् । मुक्त्वा गुरुजनानीतां स्वीकरोमि न चापराम् ॥४१॥ इत्यवोचत्ततस्ताश्च शृङगाररसचेष्टितैः । नानाविधं रञ्जयितुं प्रवृत्ता नाशकंस्तदा ॥ ४२ ॥ विद्युद्वेगा ततो गच्छत स्वमातृपितृसन्निधौ । पिधाय द्वारमारोप्य सौधाग्रं प्राणवल्लभम् ॥४३॥ तावाने तुं कुमारोऽपि सुप्तवान् रक्तकम्बलम् । प्रावृत्य' तं समालोक्य मेरुण्डः पिशितोच्चयम् ॥४४॥ मत्वा नीत्वा द्विजः सिद्धकूटाग्रे खादितुं स्थितः । चलन्तं वीक्ष्य सोऽत्याक्षीत् स" तेषां " जातिजो गुणः ॥४५॥ "ततोऽवतीर्थ श्रीपालः स्नात्वा सरसि भक्तिमान् । सुपुष्पाणि सुगन्धीनि समादाय जिनालयम् ॥ ४६ ॥ परीत्य स्तोतुमारेभ विवृत्त" द्वास्तदा" स्वयम् । तन्निरीक्ष्य प्रसन्नस्सन्नभ्यर्च्य जिनपुङ्गवान् ॥४७॥ अभिवन्द्य यथाकामं विधिवत्तत्र सुस्थितः । तमभ्येत्य खगः कश्चित् समुद्धृत्य नभःपथे ॥ ४८ ॥ गच्छन्मनोरमे राष्ट्र शिवंकरपुरेशिनः । नृपस्यानिलवेगस्य कान्ता कान्तवतीत्यभूत् ॥४६॥ तयोः सुतां भोगवतीम् श्राकाशस्फटिकालय । मृदुशय्यातले सुप्तां का कुमारीयमित्यसौ" ॥५०॥ अपृच्छत् सोऽब्रवीदेषा भुजङगी विषमेति च । तदुक्तेः स क्रुधा कृत्वा कन्यापितुसमीपगम् ॥५१॥
आपको देखकर आपमें अत्यन्त अनुरक्त हो गई है अतः आपको यह छोड़नी नहीं चाहिये । कुमारने ये सब बातें सुनकर और अच्छी तरह विचारकर उचित उत्तर दिया कि मैंने यज्ञोपवीत संस्कारके समय गुरुजनोंके द्वारा दिया हुआ एक व्रत ग्रहण किया था और वह यह है कि मैं माता-पिता आदि गुरुजनोंके द्वारा दी हुई कन्याको छोड़कर और किसी कन्याको स्वीकार नहीं करूंगा । जब कुमारने यह उत्तर दिया तब वे सब कन्याएं अनेक प्रकारकी शृङ्गाररसकी चेष्टाओंसे कुमारको अनुरक्त करनेके लिये तैयार हुई परन्तु जब उसे अनुरक्त नहीं कर सकीं तब विद्युद्वेगा प्राणपति श्रीपालको मकानकी छतपर छोड़कर और बाहरसे दरवाजा बन्दकर माता-पिताको बुलानेके लिये उनके पास गई । इधर कुमार श्रीपाल भी लाल कम्बल ओढ़कर सो गये, इतने एक भेरुण्ड पक्षीकी दृष्टि उनपर पड़ी, वह उन्हें मांसका पिण्ड समझकर उठा ले गया और सिद्धकूट- चैत्यालयके अग्रभागपर रखकर खानेके लिये तैयार हुआ परन्तु कुमारको हिलता डुलता देखकर उसने उन्हें छोड़ दिया सो ठीक ही है क्योंकि यह उन पक्षियोंका जन्मजात गुण है ||३४-४५ ॥ तदनन्तर श्रीपालने सिद्धकूटकी शिखरसे नीचे उतरकर सरोवरमें स्नान किया और अच्छे अच्छे सुगन्धित फूल लेकर भक्तिपूर्वक श्री जिनालयकी प्रदक्षिणा दी और स्तुति करना प्रारम्भ किया, उसी समय चैत्यालयका द्वार अपने आप खुल गया, यह देखकर वह बहुत ही प्रसन्न हुआ और विधिपूर्वक इच्छानुसार श्रीजिनेन्द्रदेवकी पूजा वन्दनाकर सुखसे वहींपर बैठ गया । इतनेमें ही एक विद्याधर सामने आया और कुमारको उठाकर आकाशमार्ग में ले चला, चलते चलते वे मनोरम देशके शिवंकरपुर नगर में पहुंचे, वहांके राजाका नाम अनिलवेग था, और उसकी स्त्रीका नाम था कान्तवती, उन दोनोंके भोगवती नामकी पुत्री थी, वह भोगवती आकाशमें बने हुए स्फटिकके महलमें कोमल शय्यापर सो रही थी उसे देखकर उस विद्याधरने श्रीपालकुमारसे पूछा कि यह कुमारी कौन ? कुमारने उत्तर दिया कि
४ तैरदत्ताम् ।
प्रच्छाद्य ।
१ संविचि-ल०, प०, अ० । २ स्वीकृतः । ३ कन्यकाजननीजनकानुमतेन दत्ताम् । ५ शक्ताः न बभूवुः । ६ रत्नावर्तगिरेः । ७ निजमातापितरौ । ९ पक्षिविशेषः । १० मांसपिण्डम् । ११ मेरुण्ड: । १२ मुमोच । १३ सजीवस्य त्यागः | १४ पक्षिणाम् । १५ सिद्धकूटाग्रात् । १६ उद्घाटितम् । १७ द्वारम् । १८ विद्याधरः । १६ श्रीपालः । २० श्रीपालवचनात् । २१ भोगवतीजनकस्य समीपस्थं कृत्वा तेन अनिलवेगेन सह विद्याधरो वदति । किमिति ? अस्मत्कन्यकां भोगवतीमेव खलः श्रीपालः विषमभुजङ्गीति अब्रवीदिति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org