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महापुराणम् तमस्मत्कन्यकामेष भुजडागीति खलोऽब्रवीत् । इत्यवोचत्ततः ऋद्ध्वा दुर्धी निक्षिप्यतामयम् ॥५२॥ दुर्द्धरोरुतपोभारधारियोग्य घने वने । इत्यभ्यधान्नुपस्तस्य वचनानुगमादसौ" ॥५३॥ विजयाोत्तरश्रेणिमनोहरपुरान्तिके। स्मशान शीतवैतालीविद्यया तं शुभाकृतिम् ॥५४॥ कृत्वा व्यत्यक्षिपत पापी जरतीरूपधारिणम् । तत्रास्पृश्यकल जाता काऽपि जामातरं स्वयम् ॥५५॥ स्वग्राममगरूपेण स्वसुताचरणद्वय। समन्ताल्लुठितं कृत्वा तां प्रसाद्य' भृशं ततः ॥५६॥ १०तं पुरातनरूण समवस्थापयत खला। एतद्विलोक्य कमारोऽसौ खगाः स्वाभिमताकृतिम् ॥५७॥
विनिवर्तयितुं शक्ता इत्याशडाक्य विचिन्तयन् । "यमाप्रयायिसडदाशकाशप्रसवहासिभिः ॥५८॥ शिरोरुहुँ जराम्भोधित रङगाभतनुत्वचा। समेतमात्मनो रूपं दृष्ट्वा दुष्टविभावितम् ॥५६॥ लज्जाशोकाभिभूतःसन् मडागच्छंस्ततः परम् । तत्र" भोगवती भातुर्हरिकेतोः सुसिद्धया ॥६०॥ विद्यया शवरूपेण सद्यः प्राथितया करे। कुमारस्य समुद्वम्य' निर्वान्तमविचारयन् ॥६१॥ उद्धृत्येदं विशडकस्त्वं पिबेत्युक्तं प्रपीतवान् । ३तं दृष्ट्वा हरिकेतुस्त्वां सर्वव्याधिविनाशिनी ॥६२॥ विद्याश्रितेति सम्प्रीतः प्रयुज्य वचनं गतः। ततः स्वरूपमापन्नः" कुमारो वटभूरुहः२५ ॥६३॥
गच्छन् स्थितमधोभाग दृष्ट्वा कञ्चिन्नभश्चरम् । प्रदेशः कोऽयमित्येतद् अपृच्छत् सोऽब्रवीदिदम् ॥६४॥ यह विषम सर्पिणी है। श्रीपालके ऐसा कहनेपर वह विद्याधर क्रुद्ध होकर उन्हें उस कन्याके पिताके पास ले गया और कहने लगा कि यह दुष्ट हम लोगोंकी कन्याको सर्पिणी कह रहा है । यह सुनकर कन्याके पिताने भी क्रुद्ध होकर कहा कि 'इस दुष्टको कठिन तपका भार धारण करनेके योग्य किसी सघन वनमें छुड़वा दो।' राजाके कहे अनुसार उस पापी विद्याधरने शीत वैताली विद्याके द्वारा सुन्दर आकारवाले श्रीपालकुमारको वृद्धका रूप धारण करनेवाला बनाकर विजयार्ध पर्वतकी उत्तर श्रेणिके मनोहर नगरके समीपवाले श्मशानमें पटक दिया। वहां अस्पृश्य कुलमें उत्पन्न हुई किसी स्त्रीने अपने जमाईको कुत्ता बनाकर अपनी पुत्रीके दोनों चरणोंपर खूब लोटाया और इस तरह अपनी पुत्रीको अत्यन्त प्रसन्नकर फिर उस दुष्टा चाण्डालिनीने उसका पुराना रूप कर दिया। यह देखकर कुमार कुछ भयभीत हो चिन्ता करने लगा कि ये विद्याधर लोग इच्छानुसार रूप बनाने में समर्थ हैं। उस समय वह मानो यमराजके सामने जानेवालेके समान ही था-अत्यन्त वद्ध था. उसके बाल काशके फले हए फलोंके हूँ कर रहे थे, और शरीरमें बुढाफारूपी समुद्रकी तरंगोंके समान सिकुड़नें उठ रही थीं। इस प्रकार दुष्ट विद्याधरके द्वारा किया हुआ अपना रूप देखकर वह लज्जा और शोकसे दब रहा था। इसी अवस्थामें वह शीघ्र ही आगे चला । वहां भोगवतीके भाई हरिकेतुको विद्या सिद्ध हुई थी उससे उसने प्रार्थना की तब विद्याने मुरदेका रूप धारणकर श्रीपाल कुमारके हाथपर कुछ उगल दिया और कहा कि तू बिना किसी विचारके निशङक हो इसे उठाकर पी जा, कुमार भी उसे शीघ्र ही पी गया। यह देखकर हरिकेतुने कुमारसे कहा कि तुझे सर्वव्याधिविनाशिनी विद्या प्राप्त हुई है, यह कहकर और विद्या देकर हरिकेतु प्रसन्न होता हुआ वहां चला गया। इधर कुमार भी अपने असली रूपको प्राप्त हो गया। कुमार आगे बढ़ा तो उसने एक वट वृक्षके
१ इत्युवाच ततः क्रुध्वा दुष्टो अ०, प०, इ०, स०, ल० । २ तद्वचनाकर्णनानन्तरम् । ३ अनिलवेगः प्रकुप्य । ४ श्रीपालः । ५ खगः । ६ श्रीपालम् । ७ स्मशाने । ८ सारमेयरूपेण । प्रसन्नता नीत्वा । १० जामातरम् । ११ मायास्वरूपम् । १२ विनिर्मातुम् । १३ कृतान्तस्य पुरोगामिसदृशः । १४ हारिभिः ल०। १५ जराम्भोधेस्तरङ्गाभ इत्यपि पाठः । १६ दुष्टविद्याधरेण समुत्पादितम् । १७ तस्मादन्यप्रदेशम् । १८ स्मशाने। १६ पूर्वोक्तभोगवतीकन्याग्रजस्य । २० श्रीपालकुमारस्य । २१ वमनं कृत्वा । २२ पिबति स्म। २३ श्रीपालम् । २४ निजरूपं प्राप्तः। २५ न्यग्रोधवृक्षस्य । वटभूरुहम् ल० । २६ वक्ष्यमाणामित्येवम्-ल०, प०, अ०, स०, इ० ।
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