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सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व
विगतक्षुच्छ्रमः शीघ्रं मामारहय पुरं प्रति । व्रजेति सोऽपि तच्छ्रुत्वा स्त्रियो रूपममामकम् ॥२॥ न स्पृशामि कथं चाहम् श्रारोहामि पुरा गुरोः । सन्निधावाददामीदृग्यतमित्यब्रवीदिदम् ॥१३॥ सा तदाकर्ण्य सञ्चिन्त्य किं जातमिति विद्यया । गृहीत्वा पुरुषाकारम् उद्वहन्ती 'तमित्वरी ॥१४॥ वन्दित्वा सिद्धकूटाख्यं तत्र विश्रान्तय स्थिता । तस्मिन्नेव दिन भोगवती शशिनमात्मनः ॥६५॥ प्रविश्य भवनं कान्त्या कलाभिश्चाभिर्वाद्धितम् । निर्वर्तमानमालोक्य स्वप्ने मागल्यशान्तये ॥६६॥ तत्सिद्धकूटपूजार्थं कान्ता कान्तवती सती । रत्नवेगा सुवेगाऽमितमती रतिकान्तया ॥६७॥ सहिता चित्तवेगाख्या पिप्पला मदनावती । विद्युद्वेगा तथैवान्यास्ताभिः सा परिवारिता ॥६८॥ समागत्य महाभक्त्या परीत्य जिनमन्दिरम् । यथाविधि प्रणम्येशं सम्पूज्य स्तोतुमुद्यता ॥६॥ ताश्च' तासां तदा व्याकुलीभावमपि चेतसः । तस्मिन् शिवकुमारस्य वक्रताक्रान्तमाननम् ॥१००॥ श्राविष्टसन्निधानेन विलोक्य प्रकृतिं गतम् । सुखावती तदुद्देशाद् " अपनीय कुमारकम् ॥१०१॥ स्थानेऽन्यस्मिन्न्यवादेनं तत्राप्यम्बुनि॥ मुद्रया" । स्वरूपं कामरूपिण्या "प्रेक्षमाणं यदुच्छ्या ॥१०२॥ वृष्ट्वा "हरिवरस्तस्मानीत्वा कोपात् स पापभाक् । निचिक्षेप" महाकालगुहायां "विहितायकम् ॥१०३॥
विद्याधर चाहते हैं, एकका नाम धूमवेग है और दूसरेका नाम हरिवर । ये दोनों ही अत्यन्त बलवान् हैं, उन दोनोंके भयसे ही मैंने आपको छिपाकर नगर में पहुंचानेके लिये विद्याके प्रभाव
'मायामय दो रूप बनाये हैं । हे कुमार, मेरे हाथमें रखे हुए इस अमृतके समान स्वादिष्ट फलको खाकर आप अपनी भूख तथा थकावटको दूर कीजिये और मुझपर सवार होकर शीघ्र ही नगरकी ओर चलिये' यह सुनकर कुमारने कहा कि मेरे सवार होनेके लिये स्त्रीका रूप अयोग्य है, मैं तो उसका स्पर्श भी नहीं करता हूं, सवार कैसे होऊं ? क्योंकि मैंने पहले गुरुके समीप ऐसा ही व्रत लिया है यह सुनकर उसने सोचा और कहा कि अब भी क्या हुआ ? वह विद्याके द्वारा उसी समय पुरुषका आकार धारण कर कुमारको बड़ी शीघ्रतासे ले चली | चलते चलते वह सिद्धकूट चैत्यालयमें पहुंची और वन्दना कर विश्राम करनेके लिये वहीं बैठ गई । उसी दिन भोगवतीने स्वप्नमें देखा कि कान्ति और कलाओंसे बढ़ा हुआ चन्द्रमा हमारे भवनमें प्रवेशकर लौट गया है इस स्वप्नको देखकर वह अमंगलकी शान्तिके लिये सिद्धकूट चैत्यालयमें पूजा करनेके लिये आई थी । वह सुन्दरी कान्तवती, सती रत्नवेगा, सुवेगा, अमितमती, रतिकान्ता, चित्तवेगा, पिप्पला, मदनावती, विद्युद्वेगा तथा और भी अनेक राजकन्याओं से घिरी हुई थी । उन सभी कन्याओंने आकर बड़ी भक्तिसे जिन मन्दिरकी प्रदक्षिणा दी, विधिपूर्वक नमस्कार किया, पूजा की और फिर सबकी सब स्तुति करनेके लिये उद्यत हुई । स्तुति करते समय भी उनका चित्त व्याकुल हो रहा था । उसी चैत्यालयमें एक शिवकुमार नामका राजपुत्र भी खड़ा था, उसका मुँह टेढ़ा था परन्तु श्रीपालकुमार के समीप आते ही वह ठीक हो गया, यह देखकर सुखावतीने उसे उसके स्थानसे हटाकर दूसरी जगह रख दिया । उस चैत्यालय में श्रीपालकुमार अपनी कामरूपिणी मुद्रासे इच्छानुसार जलमें अपना खास रूप देख रहा था । उसे ऐसा करते पापी हरिवर विद्याधरने देख लिया और पूर्व जन्ममें पुण्य करनेवाले कुमारको
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१ मम सम्बन्धिस्त्रीरूपं मुक्त्वा अन्यस्त्रीरूपम् । २ पूर्वस्मिन् । ३ गुरोः समीपे ४ स्वीकरोमि । ५ श्रीपालम् । ६ गमनशीला | ७ पुरा कुमारेण भुजङ गीत्युक्ता भोगवती । ८ सहागताः कन्यकाः । e आदेशपुरुषसामीप्येन । १० पूर्वस्वरूपम् । ११ तत्प्रदेशात् । १४ मुद्रिकया । १५ प्रेक्ष्यमाणं इ० । १६ मदनावतीमैथुनः । श्रीपालम् ।
१३ जले । १८ कृतपुण्यं
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१२ स्थापयामास । १७ निक्षिप्तवान् ।
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