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महापुराणम् सप्रभा चन्द्रलेखेव सह तत्र प्रभावती । गुणवत्या समागस्त सङगतिः स्याद्यदृच्छया ॥२२२॥ गुणवत्यायिक दृष्ट्वा नत्वोक्ता प्रियदत्तया । कुतोऽसौ' 'गणिनीत्याख्यत् स्वर्गतेति प्रभावती ॥२२३॥ तच्छुत्वा नेत्रभूता नौ सैवेति शुचमागता । कुतः प्रीतिस्तयेत्युक्ता साऽब्रवीत् प्रियदत्तया ॥२२४॥ न स्मरिष्यसि कि पारावतद्वन्द्वं भवद्गहे । “तत्राहं रतिषेणेति तच्छ त्वा विस्मिताऽवदत् ॥२२॥ क्वासौ रतिवरोऽयेति सोऽपि विद्याधराधिपः । हिरण्यवर्मा कर्मारियतिरत्रेति "साब्रवीत् ॥२२६॥ प्रियदत्ताऽपि तं गत्वा वन्दित्वैत्य महामुनिम् । प्रभावती परिप्रश्नात् पत्युरित्याह वृत्तकम् ॥२२७॥ विजयार्द्धगिरेरस्य गान्धारनगराविह" । विहर्त रतिषणोऽमा गान्धार्या प्रिययाऽगमत् ॥२२॥
गान्धारी सर्पदष्टाहमिति तत्र मुषा स्थिता । मन्त्रौषधीः प्रयोज्यास्याः श्रेष्ठी विद्याधरश्च सः ॥२२६॥ करते थे, जिस प्रकार सूर्यका नित्य उदय होता है उसी प्रकार मुनिराजके भी ज्ञान आदिका नित्य उदय होता रहता था, जिस प्रकार सूर्य बुध अर्थात् बुधग्रहका स्वामी होता है उसी प्रकार मुनिराज भी बुध-अर्थात् विद्वानोंके स्वामी थे, जिस प्रकार सूर्य विश्वदृश्वा अर्थात् सब पदार्थों को प्रकाशित करनेवाला है उसी प्रकार मुनिराज भी विश्वदृश्वा अर्थात् सब पदार्थाको जानन वाले थे, जिस प्रकार सर्य विरोचन अर्थात अत्यन्त देदीप्यमान रहता है अथवा विरो धारण करनेवाला है उसी प्रकार मुनिराज भी विरोचन अर्थात् अत्यन्त देदीप्यमान थे अथवा रुचिरहित उदासीन थे और जिस प्रकार सूर्य पुण्डरीकिणी अर्थात् कमलिनीको प्रफुल्लित करता है उसी प्रकार मुनिराज भी पुण्डरीकिणी अर्थात् विदेह क्षेत्रकी एक विशेष नगरीको आनन्दित करते थे इस प्रकार सूर्यकी समानता रखनेवाले मुनिराज हिरण्यवर्मा किसी समय पुण्डरी किणी नगरीमें पधारे ॥२२०-२२१॥ प्रभासहित चन्द्रमाकी कलाके समान आर्यिकाप्रभावती भी वहाँ आई और गुणवती-गणिनीके साथ मिलकर रहने लगी सो ठीक ही है क्योंकि समागम अपनी इच्छानसार ही होता है ॥२२२।। गणवती-गणिनीको देखकर प्रियदत्ताने नमस्कार कर पूछा कि संघाधिकारिणी अमितमति कहां हैं ? तब उसने कहा कि 'वह तो स्वर्ग चली गई है' यह सुनकर प्रभावती कुछ शोक करने लगी और कहने लगी कि 'हम दोनोंकी आंखें वहीं थी,' तब प्रियदत्ताने पूछा कि उनके साथ तुम्हारा प्रेम कैसे हुआ ? उत्तरमें प्रभावती
हने लगी कि आपको क्या स्मरण नहीं है आपके घरमें जो कबतर-कबतरीका जोडा रहता था उनमेंसे मैं रतिषणा नामकी कबूतरी हूँ, यह सुनकर प्रियदत्ता आश्चर्यसे चकित होकर कहने लगी कि 'वह रतिवर कबूतर आज कहाँ है तब प्रभावतीने कहा कि वह भी विद्याधरोंका राजा हिरण्यवर्मा हआ है और कर्मरूपी शत्रुओंको नाश करनेवाला वह आज इसी पुण्डरीकिणी में विराजमान है। प्रियदत्ताने भी जाकर महामुनि-हिरण्यवर्माकी वन्दना की और फिर प्रभावतीके पूछनेपर अपने पतिका वृत्तान्त इस प्रकार कहने लगी ॥२२३-२२७।।
एक रतिषेण नामका विद्याधर अपनी स्त्री गांधारीके साथ साथ इसी विजयार्ध पर्वतके गांधार नगरसे विहार करनेके लिये यहां आया था ॥२२८॥ मुझे सर्पने काट खाया है इस प्रकार झूठ झूठ बहानाकर गांधारी यहां पड़ रही, सेठ कुबेरकान्त और विद्याधरने बहुत सी औषधियोंका प्रयोग किया परन्तु गांधारीने मायाचारीसे कह दिया कि 'अभी मुझे
१ पुण्डरीकिण्याम् । २ समागतवती सङगतवती वा। ३ गुणवत्यादिका ट० । गुणवती शशिप्रभावत्यायिकाः । ४ क्वास्ते। ५ यशस्वती। ६ अनन्तमतिसहिताऽमितमत्यायिका। ७ गुणवती जगाद । ८ नाकं प्राप्तेति । ६ नेत्रसदृशी। १० प्रियदत्ता। ११ पारावतद्वन्द्वे । १२ कर्मारघाति ल०, प० । १३ अस्मिन् पुरे तिष्ठतीति । १४ प्रभावती । १५ हिरण्यवर्ममुनिम् । १६ पुनरागत्य । १७ पुण्डरीकिण्याम् । १८ कबरेकान्तः ।
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