Book Title: Mahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 479
________________ ४६८ महापुराणम् गणपालाय तद्राज्यं दत्वा संयममादधे । निकट रतिषणस्य विद्याधरमनीशितुः ॥२४३॥ पञ्चमं स्वपदे सून नियोज्यान्यः' सहात्मजः। ययौ श्रेष्ठी' च तत्रैव दीक्षां मोक्षाभिलाषुकः ॥२४४॥ तथोक्त्वा कान्तवृत्तान्तं सा समुत्पन्नसंविदा । विरज्य गृहसंवासात् कुबेरादिश्रियं सतीम् ॥२४॥ '"गुणपालाय दत्वा स्वां सुतां गुणवती' श्रिता । प्रभावत्युपदेशेन प्रियदत्ताऽप्यदीक्षत'२ ॥२४६॥ मुनि हिरण्यवर्माण कदाचित प्रेतभूतले । दिनानि सप्त सडागीर्य प्रतिमायोगधारिणम् ॥२४७॥ वन्दित्वा नागराः५ सर्वे तत्पूर्वभवस कथा । कुर्वाणा पुरमागच्छन विधुच्चोरोऽप्युदीरितात् ॥२४८॥ चेटक्याः प्रियदत्तायास्तन्मुनेः प्राक्तनं भवम् । विदित्वा तद्गतक्रोधात्तदोत्पन्नविभागकः ॥२४६॥ मुनि पृथकप्रदेशस्था प्रतिमायोगमास्थिताम् ।प्रभावती च संयोज्य चितिकायां दुराशयः ॥२५०॥ एकस्यामेव निक्षिप्याधाक्षीदधजिघृक्षया । सोढ्वा तदुपसर्ग तो विशुद्धपरिणामतः ॥२५॥ स्वर्ग समुदपद्यतां क्षमया कि न जायते । "सुवर्णवर्मा तज्ज्ञात्वा विद्युच्चोरस्य निग्रहम् ॥२५२॥ करिष्यामीति कोपेन पापिनः सङगरं व्यवात्५ । विदित्वाऽवधिबोधेन तत्तौ“ स्वर्गनिवासिनौ ॥२५३॥ प्राप्य संयमरूपेण सुतां धर्मकथादिभिः। तत्त्वं श्रद्धाप्य तं कोपा अपास्य कृपयाऽऽहितौ ॥२५४॥ ही वन्दना कर धर्मका स्वरूप पूछा । काललब्धिका निमित्त पाकर राजा लोकपालने अपने पुत्र गुणपालके लिये राज्य दिया और उन्हीं विद्याधर मुनि रतिषेणके निकट संयम धारण कर लिया ॥२४२-२४३॥ मोक्षके अभिलाषी सेठने भी अपने पांचवें पुत्र-कुबेरप्रियको अपने पदपर नियुक्त कर अन्य सब पुत्रोकं साथ साथ वहीं दीक्षा धारण की ॥२४४॥ इस प्रकार प्रियदत्ता अपने पतिका वत्तान्त कहकर उत्पन्न हए आत्मज्ञानके द्वारा गहवाससे विरक्त हो गई थी, उस सतीने अपनी कुबेरश्री पुत्री राजा गुणपालको दी और स्वयं गुणवती आर्यिकाके समीप जाकर प्रभावतीके उपदेशसे दीक्षा धारण कर ली ॥२४५-२४६। किसी समय मुनिराज हिरण्यवर्माने सात दिनका नियम लेकर श्मशानभूमिमें प्रतिमा योग धारण किया, नगरके सब लोग उनकी वन्दना करनेके लिये गये थे । वन्दना कर उनके पूर्वभवकी कथाएं कहते हुए जब सब लोग नगरको वापिस लौट आये तब एक विद्युच्चोरने भी प्रियदत्ताकी चेटीसे उन मुनिराजका वृत्तान्त सुना, सुनकर उसे उनके प्रति कुछ क्रोध उत्पन्न हुआ और उसी क्रोध के कारण उसे विभंगावधि भी प्रकट हो गया, उस विभंगावधिसे उसने मुनिराजके पूर्वभवके सब समाचार जान लिये । यद्यपि मुनिराज प्रतिमायोग धारण कर अलग ही विराजमान थे और प्रभावती भी अलग विद्यमान थी तो भी उस दृष्टने पापसंचय करनेकी इच्छासे उन दोनोंको मिलाकर और एक ही चितापर रखकर जला दिया वे दोनों विशद्ध परिणामोंसे उपसर्ग सहनकर स्वर्गमें उत्पन्न हुए सो ठीक ही है क्योंकि क्षमासे क्या क्या नहीं होता ? जब सुवर्णवर्माको इस बातका पता चला तब उसने प्रतिज्ञा की कि मैं विद्युच्चोरका निग्रह अवश्य ही करूँगाउसे अवश्य ही मारूँगा। यह प्रतिज्ञा स्वर्गमें रहनेवाले हिरण्यवर्मा और प्रभावतीके जीव देवदेवियोंने अवधिज्ञानसे जान ली, वे शीघ्र ही संयमीका रूप बनाकर पुत्रके पास पहुँचे, दया १-माददी अ०, ल०, ५०, स०, इ० । २ मुनीशिनः ल। ३ चरमपुत्रं कुबेरप्रियम् । ४ कुबेरदयितादिभिः। ५ कुबेरकान्तः । । ६ प्रियस्य वृत्तकम् । ७ प्रियदत्ता।८ समुत्पन्नज्ञानेन । १ सती ल०। १० लोकपालस्य सुताय । ११ गुणवत्यायिकाम् । १२ दीक्षामग्रहीत् । १३ चैत्यभूतले ल० । चितायोग्यमहीतले। परेतभूमावित्यर्थः । १४ प्रतिज्ञां कृत्वा। १५ नगरजनाः। १६ वचनात् । उदीरिताम् ल०, अ०, प०, स०, इ० । १७ विभङ्गतः ल०, अ०, स०, इ० । १८ नित्यमण्डितचैत्यालयस्य पुरः प्रतिमायोगस्थितामित्यर्थः । प्रदेशस्थे ल० । १६ -मास्थितम् ल० । २० शवशय्यायाम् । २१ दहति स्म। २२ पापं गृहीतुमिच्छया। २३ कनकप्रभदेवकनकप्रभदेव्यौ समुत्पन्नौ २४ हिरण्यवर्मणः सुतः । २५ प्रतिज्ञामकरोत् । २६ हिरण्यवर्मप्रभावतीचरदेवदेव्यौ । २७ विश्वासं नीत्वा । २८ दयया स्वीकृतौ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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