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षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व
मायया नास्मि शान्तेति तद्वाक्यात् खेदमागतौ' । प्राह तु स्वपतौ याते वनं शक्तिमदौषधम् ॥२३०॥ गान्धारीं” बन्धकीभावम्' उपेत्य स्मरविक्रियाम् । 'दर्शयन्तीं निरीक्ष्याह वणिग्वर्यो दृढव्रतः ॥२३१॥ अहं वर्षवरो वेत्सि न कि मामित्युपायवित् । व्यधाद् विरक्तचित्तां तां तदेव हि धियः फलम् ॥२३२॥ तदानीमागते पत्यौ स्वे स्वास्थ्यमहमागता । पूर्वौ षधप्रयोगेत्युक्त्वाऽगात् सपतिः 'पुरम् ॥२३३॥ दयितान्तकुबराख्यो मित्रान्तश्च कुबेरवाक् । परः कुबेरदत्तश्च कुबेरश्चान्तदेववाक् ॥२३४॥ कुबेरादिप्रियश्चान्यः पञ्चते सञ्चितश्रुताः । कलाकौशलमापन्नाः सम्पन्ननवयौवनाः ॥ २३५ ॥ एतैः स्वसूनुभिः सार्धम् श्रारुहच शिविकां वनम् । धृत्वा कुबेरश्रीगर्भ मां विहर्तुं समागताम् ॥२३६॥ दृष्ट्वा कदाचिद् गान्धारी पृथक् पृष्टवती पुमान् । त्वच्छ्रेष्ठी नेति तत्सत्यम् उत नेत्यन्ववादिशम् ॥ २३७ तत्सत्यमेव मत्तोऽन्यां प्रत्यसौ न पुमानिति । तदाकर्ण्य विरज्यासौ" सपतिः संयमं श्रिता ॥ २३८ ॥ पुनस्तत्रागता " दृष्टा दीक्षेयं केन हेतुना । तवेति सा मया पुष्टा प्रप्रणम्य प्रियोक्तिभिः ॥२३६॥ श्रेष्ठ्येव ते तपोहेतुरिति प्रत्यब्रवीदसौ । निगूढं तद्वचः श्रेष्ठी श्रुत्वाऽऽगत्य पुरः स्थितः ॥ २४० ॥ मामजैषीत् सखाऽसौ मे" "क्वाद्येति परिपृष्टवान् । सोऽपि मत्कारणेनैव गृहीत्वेहागमत्तपः ॥२४१॥ इति तद्वचनाच्छ ेष्ठी नृपश्चाभ्येत्य तं मुनिम् । वन्दित्वाधर्ममापृच्छ्य काललब्ध्या महीपतिः ॥२४२॥
शान्ति नहीं हुई है, यह सुनकर उसके पति रतिषेणको बहुत दुःख हुआ । वह अधिक शक्तिवाली औषधि लानेके लिये वनमें चला गया, इधर उसके चले जानेपर गांधारीने कुलटापन धारण कर कामकी चेष्टाएं दिखाई, यह देखकर उपायको जाननेवाले और अपने व्रतमें दृढ रहनेवाले सेठ कुबेरकान्तने कहा कि अरे, मैं तो नपुंसक हूं- क्या तुझे मालूम नहीं ? ऐसा कहकर सेठने उसे अपनेसे विरक्तचित्त कर दिया सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धिका फल यही है ॥२२९२३२।। इतनेमें ही उसका पति वापिस आ गया, तब गांधारीने कह दिया कि मैं पहले दी हुई औषधिके प्रयोगसे ही स्वस्थ हो गई हूँ ऐसा कहकर वह पतिके साथ नगरमें चली गई ॥२३३॥ कुबेरदयित, कुबेरमित्र, कुबेरदत्त, कुबेरदेव और कुबेरप्रिय ये पांच मेरे पुत्र थे । ये पांचों ही समस्त शास्त्रोंको जाननेवाले, कला कौशलमें निपुण तथा नव यौवनसे सुशोभित थे । किसी एक दिन जब कि कुबेरश्री कन्या मेरे गर्भमें थी तब मैं अपने पूर्वोक्त पुत्रोंके साथ पालकीमें बैठकर वनमें विहार करनेके लिये गई थी उसी समय गांधारीने मुझे देखकर और अलग ले जाकर मुझसे पूछा कि 'आपके सेठ पुरुष नहीं हैं' क्या यह बात सच है अथवा झूठ ? तब मैंने उत्तर दिया कि बिलकुल सच है क्योंकि वे मेरे सिवाय अन्य स्त्रियोंके प्रति पुरुष नहीं हैं यह सुनकर उसने विरक्त हो अपने पतिके साथ साथ संयम धारण कर लिया ॥ २३४ - २३८ || किसी एक दिन वह गांधारी आर्यिका यहां फिर आई तब मैंने दर्शन और प्रणाम कर प्रिय वचनों द्वारा पूछा कि 'आपने यह दीक्षा किस कारणसे ली है ?' उसने उत्तर दिया था कि 'मेरे तपश्चरणका कारण तेरा सेठ ही है, सेठ भी गुप्तरूपसे यह बात सुनकर सामने आकर खड़े हो गये और पूछने लगे कि जिसने मुझे जीत लिया है ऐसा मेरा मित्र आज कहाँ है ? तब गान्धारी आर्यिकाने कहा कि ' वे भी मेरे ही कारण तप धारण कर यहाँ पधारे हैं, ॥२३९-२४१॥ यह सुनकर सेठ और राजा दोनों ही उन मुनिराजके समीप गये और दोनोंने
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१ - मागते ल० 1 तो द्वौ खेदमानती अ०, स० । २ विजयार्द्धवनम् । ३ विषापहरणसामर्थ्यवन्महौषधम् । ४ गान्धारी ल० । ५ कुलटात्वम् । ६ दर्शयन्ती ल० । ७ वर्षधरः ल० । षण्डः । ८ पतिसहिता । εकुबेरदेवः । १० कुबेरश्रियः सम्बन्धि गर्भम् । ११ एकान्ते । १२ पुमान् न भवतीति । १३ असत्यं वा । १४ मत् । १५ गान्धारी । १६ पुण्डरीकिण्याम् मित्रं रतिषेणः । १६ कुत्र तिष्ठतीति । २० गतस्तपः ल०, अ०, प०, स० ।
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१७ जितवती । १८ मम २१ लोकपालः ।
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