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षट्चत्वारिंशत्तम पर्व 'प्रबोवद्वेषरागात्मा संसारस्तद्विपर्ययः । मोक्षश्चेद् वीक्षितो विद्भिः कःक्षेपो मोक्षसाधने ॥२१३॥ यदि देशादिसाकल्ये न तपस्तत्पुनः कुतः। मध्येऽर्णवं यतो वेगात् कराग्रच्युतरत्नवत् ॥२१४॥ 'आत्म स्त्वं परमात्मानम आत्मन्यात्मानमात्मना। हित्वा दुरात्मतामात्मनीने ऽध्वनि'चरन् कुर ॥२१॥ इति सञ्चिन्तयन गत्वा पुरं परमतत्त्ववित् । सुवर्णवर्मण राज्यं साभिषेकं वितीर्य सः ॥२१६॥ अवतीर्य महीं प्राप्य श्रीपुर श्रीनिकेतनम् । दीक्षां जैनेश्वरी प्राप श्रीपालगुरुसन्निधौ ॥२१७॥ परिग्रहग्रहान्मुक्तो दीक्षित्वा स तपोंऽशुभिः । हिरण्यवर्मा धर्मांशु निर्मलो व्यधुतत्तराम् ॥२१८॥ प्रभावती च तन्मात्रा" १"गुणवत्यास्तपोऽगमत् । कुतश्चन्द्रमसं मुक्त्वा चन्द्रिकायाः स्थितिः पृथक् ॥ सद्वत्तस्तपसा दीप्तो दिगम्बर विभूषणः। निस्सङगो "व्योमगाम्येकविहारी विश्ववन्दितः ॥२२०॥
नित्योदयो' बुधाधीशो विश्व दृश्वा विरोचनः२० । स कदाचित् समागच्छन्मोदयन् पुण्डरीकिणीम् ॥ कहना ही क्या है? ॥२१२।। यह संसार अज्ञान, द्वष और राग स्वरूप है तथा मोक्ष इस विपरीत है अथोत् सम्यग्ज्ञान और समता स्वरूप है। यदि विद्वान् लोग ऐसा देखते रहें तो फिर मोक्ष होने में देर ही क्या लगे ? ॥२१३। जिस प्रकार वेगसे जाते हुए पुरुषके हाथसे बीच समुद्र में छूटा हुआ रत्न फिर नहीं मिल सकता है उसी प्रकार देश काल आदिकी सामग्री मिलनेपर भी यदि तप नहीं किया तो वह तप फिर कैसे मिल सकता है ? ॥२१४॥ इसलिये हे आत्मन् , तू आत्माका हित करनेवाले मोक्षमार्गमें दुरात्मता छोड़कर अपने आत्माके द्वारा अपने ही आत्मामें परमात्मा रूप अपने आत्माको ही स्वीकार कर ॥२१५॥ इस प्रकार चिन्तवन करते हुए परम तत्त्वके जाननेवाले राजा हिरण्यवर्माने अपने नगरमें जाकर अपने पुत्र सुवर्णवर्मा के लिए अभिषेकपूर्वक राज्य सौंपा और फिर विजयार्द्ध पर्वतसे पृथ्वीपर उतरकर लक्ष्मीके गृहस्वरूप श्रीपुर नामके नगरमें श्रीपाल गुरुके समीप जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली ॥२१६२१७॥ परिग्रहरूपी पिशाचसे मक्त हो दीक्षा धारण कर सर्यके समान निर्मल हआ वह राजा हिरण्यवर्मा तपश्चरणरूपी किरणोंसे बहुत ही देदीप्यमान हो रहा था ॥२१८॥ प्रभावतीने भी हिरण्यवर्माकी माता-शशिप्रभाके साथ गुणवती आर्यिकाके समीर तप धारण किया था सो ठीक ही है क्योंकि चन्द्रमाको छोड़कर चाँदनीकी पृथक स्थिति भला कहाँ हो सकती है ? ॥२१९।। वे हिरण्यवर्मा मुनिराज ठीक सूर्यके समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार सूर्य सद्वृत्त अर्थात् गोल है उसी प्रकार वे मुनिराज भी सद्वृत्त अर्थात् निर्दोष चारित्रको धारण करनेवाले थे। जिस प्रकार सूर्य तप अर्थात् गर्मीसे देदीप्यमान रहता है उसी प्रकार मुनिराज भी तप अर्थात् अनशनादि तपश्चरणसे देदीप्यमान रहते थे, जिस प्रकार सूर्य दिगम्बर अर्थात् दिशा और आकाशका आभूषण है उसी प्रकार मुनिराज भी दिगम्बर अर्थात् दिशारूप वस्त्रको धारण करनेवाले निर्ग्रन्थ मुनियोंके आभूषण थे, जिस प्रकार सूर्य निःसंग अर्थात् सहायतारहित अकेला होता है उसी प्रकार मुनिराज भी निःसङ्ग अर्थात् परिग्रहरहित थे, जिस प्रकार सूर्य आकाशमें गमन करता है उसी प्रकार चारणऋद्धि होनेसे मुनिराज भी आकाशमें गमन करते थे, जिस प्रकार सूर्य अकेला ही घूमता है उसी प्रकार मुनिराज भी अकेले ही घूमते थेएकविहारी थे, जिस प्रकार सूर्यको सब वन्दना करते हैं उसी प्रकार मुनिराजको भी सब वन्दना
१ अज्ञान । २ बुधैः । ३ कालयापना। ४ सुदेशकुलजात्यादिसामग्र्ये । ५ गच्छतः । ६ आत्मन् स्वं ल०। ७ आत्महिते। ८ मार्गे। ६ वरं ल०, प० । रति कुरु अ०, स०। १० धान्यकमालवनात् निजनगरं प्राप्य । ११ विजयार्द्धाचलात् भुवं प्राप्य । १२ श्रीगृहम् । १३ आदित्यः। १४ हिरण्यवर्मणो जनन्या शशिप्रभया सह। १५ गुणवत्यायिकायाः समीपे । १६ रविपक्षे दिशश्च अम्बरञ्च विभूषयतीति । १७ गगनचारिणः । १८ सर्वकालोत्कृष्टबोधः। १६ जगच्चक्षुः । २० रविरिव ।
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