________________
षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व
'दिव्यरूपं समादाय निगद्य निजवृत्तकम् । प्रदायाभरणं तस्मै परार्ध्यं स्वपदं गतौ ॥२५५॥ कदाचिद् वत्सविषय खुसीमनगर मुनेः । शिवयोषस्य केवल्यम् 'उदपायस्तघातिनः ॥ २५६॥ शशिची मेनका च नत्वा जिनेश्वरम् । समाश्रित्य सुराधीशं स्थिते प्रश्नात्' सुरेशितुः ॥ २५७॥
त्रैव सप्तमेऽन्हि' प्राक् समाप्तश्रावकव्रते । नाम्ना 'पुष्यवती सान्त्या प्रथमा पुष्पपालिता ॥ २५८ ॥ 'कुसुमावयासक्ते वने सर्वाग्निहेतुना । मृते देव्यावजायतामित्याहा सौ स्म तीर्थकृत् ॥ २५६॥ प्रभावतीवरी देवी श्रुत्वा देवश्च तत्पतिः । स्वपूर्व भवसम्बन्धं तत्रागातां सभावनेः " ॥ २६०॥ निजान्यजन्म सौख्यानुभूतदेशान्निजेच्छ्या । श्रालोकयन्तौ तत्सर्पसरोवणसमीपगौ ॥ २६१॥ सह सार्थेन भीमाख्यं साधुं दृष्ट्वा समागतम् । विनयेनाभिवन्द्यैनं धर्म तौ समपृच्छताम् ॥२६२॥ मुनिस्तद्वचनं श्रुत्वा नाहं धर्मोपदेशन । सर्वागमार्थ वित्कार्येऽसमर्थो नवसंयतः ॥ २६३॥ प्ररूपयिष्यते किञ्चित् स मुष्मदनुरोधतः । मया तथापि श्रोतव्यं यथाशक्रस्यवधानवत् ॥२६४॥ इति सम्यक्त्व सत्पात्रदानादि श्रावकाश्रयम् । "यमादियतिसम्बन्धं धर्मं गतिचतुष्टयम् ॥ २६५ ॥ तद्धेतुफलपर्यन्तं भुक्तिमुक्ति निबन्धनम् " । जीवादिद्रव्यतत्त्वं च यथावत् प्रत्यपादयत् ॥२६६॥
૪૬૬
१४
धारण करनेवाले उन देवदेवियोंने धर्मकथाओं आदिके द्वारा तत्त्वश्रद्धान कराकर उसका क्रोध दूर किया और अन्तमें अपना दिव्यरूप प्रकटकर अपना सब हाल कहा तथा उसे बहुमूल्य आभूषण देकर दोनों ही अपने स्थानपर चले गये ।। २४७ - २५५।। किसी एक दिन वत्स देशमें सुसीमानगरी के समीप घातिया कर्म नष्ट करनेवाले शिवघोष मुनिराजको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ।। २५६ ।। उस उत्सवमें शची और मेनका नामकी देवांगनाएं भी इन्द्रके साथ आई और श्रीजिनेन्द्रदेवको नमस्कारकर इन्द्रके पास ही बैठ गई । इन्द्रने भगवान् से पूछा कि ये दोनों किस कारणसे देवियां हुई हैं ? तब तीर्थ कर देव कहने लगे कि दोनों ही पूर्वभवमें मालिनकी लड़कियां थीं, पहलीका नाम पुष्पपालिता था और दूसरीका पुष्पवती । इन दोनोंने आजसे सातवें दिन पहले श्रावकव्रत लिये थे । एक दिन ये वनमें फूल तोड़ने में लगी हुई थीं कि सर्परूपी अग्निके कारण मर गई और मरकर देवियां हुई हैं ।। २५७ - २५९ ॥ हिरण्यवर्मा और प्रभावतीके जीव जो देवदेवी हुए थे उन्होंने भी उस समय समवसरणमें अपने पूर्वभवके सम्बन्ध सुने और फिर दोनों ही सभाभूमि से निकलकर इच्छानुसार पूर्वभव सम्बन्धी सुखानुभवनके स्थानोंको देखते हुए सर्पसरोवरके समीपवाले वनमें पहुंचे ॥ २६०-२६१ ।। उस वनमें अपने संघके साथ साथ एक भीम नामके मुनि भी आये हुए थे, दोनोंने उन्हें देखकर विनयपूर्वक नमस्कार किया और धर्मका स्वरूप पूछा ॥२६२॥। उनके वचन सुनकर मुनि कहने लगे कि अभी नवदीक्षित हूँ, धर्मका उपदेश देना तो समस्त शास्त्रोंका अर्थ जाननेवाले मुनियोंका कार्य है इसलिये यद्यपि मैं धर्मोपदेश देनेमें समर्थ नहीं हूं तथापि तुम्हारे अनुरोधसे शक्तिके अनुसार कुछ कहता हूँ तुम लोगों को सावधान होकर सुनना चाहिये ।। २६३ - २६४ ॥ यह कहकर उन्होंने सम्यग्दर्शन तथा सत्पात्रदान आदि श्रावक सम्बन्धी और यम आदि मुनि सम्बन्धी धर्मका निरूपण किया । चारों गतियां, उनके कारण और फल, स्वर्ग मोक्षके निदान एवं जीवादि द्रव्य और तत्त्व इन
Jain Education International
१ दिव्यं रूपं ल०, प०, इ० । २ समुत्पन्नम् । ३ इन्द्रस्य वल्लभे । ४ इमे पूर्वजन्मनि के इति इन्द्रस्य प्रश्नवशात् तीर्थकृदाह । ५ आ सप्तदिनात् पूर्वमित्यर्थः । ६ पूर्वजन्मनि । ७ सम्यक्स्वीकृत । सान्त्या ल० । ६ पुष्पकरण्डकनाम्नि वने पुष्पवाटीकुसुमावचयार्थमासक्ते इत्यर्थः। १० अहिविषाग्निकारणेन । ११ समवसरणात् । १२ वणिक्छबिरेण । १३ धर्मः । १४ क्रियाविशेषणम् । १५ संयम । १६ मुक्तिकारणम् ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org