Book Title: Mahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 474
________________ षट्चत्वारिंशत्तम पर्व ४६३ देहवासो भयं नास्य 'यानमस्मान्महद् भयम् । देहिनः किल मार्गस्य "विपर्यासोऽत्र निर्वृतेः॥१६४॥ नीरूपोऽयं स्वरूपेण रूपी देहररूपता । निर्वाणाप्तिरतो हेयो देह एव यथा तथा॥१६॥ बन्धः सर्वोऽपि सम्बन्धो" भोगो रोगो रिपुर्वपुः। दीर्घमायासमत्यायुः तुष्णाग्नेरिन्धनं धनम् ॥१९६॥ आदौ जन्म जरा रोगा मध्येऽन्तेऽप्यन्तकः खलः । इति चक्रकसम्भ्रान्तिः जन्तोर्मध्येभवार्णवम् ॥१७॥ भोगिनो भोगवद् भोगा न भोगा नाम भोग्यकाः । एवं भावयतो भोगान् भूयोऽभूवन् भयावहाः ॥१६॥ निषेव्यमाणा विषया विषमा विषसन्निभाः । देदीप्यन्ते१२ बुभुक्षाभिः१३ "दीपनीयरिवौषधैः ॥१९॥ न तृप्तिरे भिरित्येष एव दोषो न पोषकाः । तृषश्च विषवल्लीः संसृतेश्चावलम्बनम् ॥२००॥ वनितातनुसम्भूतकामाग्निः "स्नेहसेचनैः । कामिनं भस्मसाभावम् अनीत्वा न निवर्तते ॥२०॥ जन्तोर्नोगेष भोगान्ते सर्वत्र विरतिधवा । स्थैर्य तस्याः० प्रयत्नोऽस्य क्रियाशेषो मनीषिणः ।। प्रापितोऽप्यसकृद:खं भोगस्तानव याचते । धत्तेऽवताडितोऽप्यहि मात्रास्या एव बालकः ॥२०३॥ और मूर्ख लोग ही भोगते हैं, इस शरीरका अन्त निकट है, यह असार है, और पापका आश्रय है, इसी शरीरके साथ इस आत्माका तादात्म्य हो रहा है, इसलिय अपवित्र पदार्थास वाले इस प्राणी को धिक्कार हो, इस प्राणीको शरीरमें निवास करनेसे तो भय मालूम नहीं होता परन्तु उससे निकलने में बड़ा भय मालूम होता है, निश्चयसे इस संसारमें मोक्षमार्गसे विपरीत प्रवृत्ति ही होती हे ।।१८७-१९४॥ यह जीव स्व स्वरूपकी अपेक्षा रूपरहित है परन्तु शरीरके सम्बन्धसे रूपी हो रहा है, रूपरहित होना ही मोक्षकी प्राप्ति है इसलिये जिस प्रकार बने उसी प्रकार शरीरको अवश्य ही छोड़ना चाहिये ॥१९५॥ सब प्रकार सम्बन्ध ही बन्ध है, भोग ही रोग हे, शरीर ही शत्र है, लम्बी आय ही तो दुःख देती है और धन ही तष्णारूपी अग्निका ई धन है ।।१९६।। इस जीवको पहले तो जन्म धारण करना पड़ता है, मध्यमें बुढ़ापा तथा अनेक रोग हैं और अन्तमें दुष्ट मरण है, इस प्रकार संसाररूप समुद्रके मध्यमें इस जीवको चक्रकी तरह भ्रमण करना पड़ता है ॥१९७॥ भोग करनेवाले लोगोंको ये भोग सर्पके फणोंके समान हैं इसलिये भोग करने योग्य नहीं है इस प्रकार भोगोंका बार बार विचार करनेवाले पुरुषके लिये ये भोग बड़े भयंकर जान पड़ने लगते है ।।१९८॥ ये सेवन किये हुए विषय विषके समान हैं, जिस प्रकार उत्तेजक औषधियोंसे पेटकी आग भभक उठती है उसी प्रकार भोगकी इच्छाओंसे ये विषय भभक उठते हैं ।।१९९॥ इन विषयोंसे तृप्ति नहीं होती केवल इतना ही दोष नहीं है किन्तु तृष्णाको पुष्ट करनेवाले भी हैं और संसाररूपी विषकी बेल को सहारा देनेवाले भी हैं।२००॥ स्त्रियोंके शरीरसे उत्पन्न हुई यह कामरूपी अग्नि स्नेहरूपी तेलसे प्रज्वलित होकर कामी पूरुषोंको भस्म किये बिना नहीं लौटती है ॥२०॥ भोग करनेके बाद इन समस्त भोगोंम जीवोंको वैराग्य अवश्य होता है, बुद्धिमान् लोगोंको जो तपश्चरण आदि क्रिया करनी पड़ती है वे सब इस वैराग्यको स्थिर रखनेका उपाय ही है ॥२०२।। यद्यपि यह जीव भोगोंसे अनेक बार दुःखको प्राप्त है तथापि ये जीव उन्हीं भोगोंको चाहते हैं सो ठीक ही है क्योंकि माता बालकको जिस पैरसे ताड़ती हैं बालक उसी उसी प्रकार माताके चरणको पकड़ते हैं १ शरीरे निवसनम् । २ निर्गमनम् । ३ देहवासात् । ४ व्यत्ययः । ५ देहिनि । ६ येन केन प्रकारेण । ७ पुत्रमित्रादिसम्बन्धः । ८ भवार्णवे ल०, अ०, प० । ६ सर्पस्य। १० शरीरवत् । फणवद् वा । 'भोगः सुखे स्त्रियादिभृतावहेश्च फणकाययोः' इत्यभिधानात् । ११ भोगा नाम न भोग्यकाः ल० । १२ भृशं दहन्ति । १३ भोक्तुमिच्छाभिः । १४ दीपनहेतुभिः । १५ भोगः । १६ तृष्णायाः । १७ स्नेहः प्रीतिः तैलञ्च । स्नेहसेवनैः अ०, स० । स्नेहदीपनैः प०, ल०। १८ सर्वेषु । १६ अप्रीतिः । २० विरतेः। २१ अनुष्ठानशेषः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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