Book Title: Mahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 472
________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व प्रभावत्या च पृष्टोऽसौ स्वं पूर्वभववृत्तकम् । प्रभाषत मुनेश्चैवमनुग्रहधिया तयोः ॥१६॥ ततीयजन्मनीतोऽत्र सम्भूतौ वणिजां कुले। रतिवेगा सुकान्तश्च प्राक् मृणालवतीपुरे ॥१७०॥ भर्तु भार्यामिसम्बन्ध सम्प्राप्यारिभयाद्। गतौ । कृत्वाऽनुमोदनं शक्तिषणवाने सपुण्यकौ ॥१७१॥ पारावतभवे चाप्य धर्म जातौ युवामिति । विधाय पितरौ वैश्यजन्मनोर्याविहापि तौ ॥१७२॥ तृतीयजन्मनो "युष्मद्गुरवोऽहं च सङगताः । रतिषेणगुरोः पार्वे गृहीतप्रोषधाश्चिरम् ॥१७३॥ जिनेन्द्रभवने भक्त्या नानोपकरणः सदा । विधाय पूजां समजायामहीह खगाधिपाः ॥१७४॥ पिताऽहं भवदेवस्य रतिवर्माभिधस्तदा । भूत्वा श्रीधर्मनामाऽतः संयमं प्राप्य शुद्धधीः ॥१७॥ चारणत्वं तृतीयं च ज्ञानं प्रापमिहेत्यदः । श्रुत्वा मुनिवचः प्रीतिमापद्येतान्तरां च तौर ॥१७६॥ एवं सुखेन यात्येषां काले वायुरथः पृथुम् । विशरारुं१३ समालोक्य स्तनयित्न" प्रतिक्षणम् ॥१७७॥ "विश्वं विनश्वरं पश्यन शश्वच्छाश्वतिकी मतिम् । जनः करोति सर्वत्र दुस्तरं किमिदं तमः ॥१७८॥ इति याथात्म्यमासाद्य दत्वा राज्यं विरज्य सः । मनोरथाय नैस्सङग्यं "प्रपित्सुरभवत्तदा ॥१७॥ आदित्यगतिमभ्येत्य प्रोत्या सर्वेऽपि बान्धवाः । प्रभावतीसुता देया भवतेयं रतिप्रभा ॥१८॥ वर्माने परमावधि ज्ञानको धारण करनेवाले चारणमुनि देखे, प्रभावतीने उनसे अपने पूर्वभवका वृत्तान्त पूछा, मुनिराज भी अनुग्रह बुद्धिसे उन दोनोंके पूर्वभवका वृत्तान्त इस प्रकार कहने लगे ॥१६८-१६९।। कि तुम दोनों इस जन्मसे तीसरे जन्ममें मृणालवती नगरीके तवेगा तथा सकान्त हए थे ।।१७०॥ स्त्री पुरुषका सम्बन्ध पाकर तुम दोनों शत्रुके भयसे भागकर शक्तिषेणकी शरण गये थे। वहां शक्तिषणने मुनिराजके लिये जो आहार दान दिया था उसकी अनुमोदना कर तुम दोनोंने पुण्यबंध किया था, उसके बाद कबूतर-कबूतरी के भवमें धर्म लाभकर यहां विद्याधर-विद्याधरी हुए हो। तुम दोनोंके वैश्य जन्मके जो माता पिता थे वे ही इस जन्मके भी तुम्हारे माता पिता हुए हैं। तीसरे जन्मके तुम्हारे माता पिता तथा मैंने मिलकर एक साथ रतिषेण गुरुके समीप प्रोषध व्रत लिया था, और उसका चिरकाल तक पालन करते हुए श्रीजिनेन्द्रदेवके मन्दिरमें भक्तिपूर्वक अनेक उपकरणोंसे सदा पूजा की थी उसीके फलस्वरूप हम लोग यहां विद्याधर हुए हैं। मैं पूर्वभवमें रतिवर्म नामका भवदेवका पिता था, अब श्रीधर्म नामका विद्याधर हआ हँ, मैंने शद्ध हृदयमेंसे संयम धारणकर चारणऋद्धि और तीसरा अवधि ज्ञान प्राप्त किया है इस प्रकार मुनिराजके वचन सुनकर हिरण्यवर्मा और प्रभावती दोनों ही बहुत प्रसन्न हुए ॥१७१-१७६।। इस तरह इन सबका समय सुखसे व्यतीत हो रहा था कि किसी एक समय प्रभावतीके पिता वायुरथ विद्याधरने प्रत्येक क्षण नष्ट होनेवाला मेघ देखकर ऐसा विचार किया कि यह समस्त संसार इसी प्रकार नष्ट हो जानेवाला है, फिर भी लोग इसे स्थिर रहनेवाला समझत हैं, यह अज्ञानरूपी घोर अंधकार सब जगह क्यों छाया हुआ है ? इस प्रकार यथार्थ स्वरूपका वारकर विरक्त हो मनोरथ नामक पत्रके लिये राज्य दे दिया और स्वयं निर्ग्रन्थ अवस्था धारण करनेकी इच्छा करने लगे ।।१७७-१७९।। उसी समय वायुरथके सभी भाई-बन्धुओंने बड़े १ स्वपूर्व-अ०, प०, इ०, स०, ल० । २ दम्पतिसम्बन्धम् । ३ भवदेवभयात् । ४ पलायिती । ५ प्राप्य । ६ श्रीदत्तविमलश्रियौ। अशोकदेवजिनदत्ते च । ७ युवयोः पितरः । श्रीदत्तविमलश्री-अशोकदेवजिनदत्ताः । ८ भवदेवस्य पिता रतिवर्मा। ६ जाताः स्म। १० श्रीधर्मखगाधिपतिः। ११ हिरण्यवर्मप्रभावत्यौ। १२ वायुरथादीनाम्। १३ विनश्वरशीलम् । १४ मेघम् । 'अभ्र मेघो वारिवाहः स्तनयित्नुर्बलाहकः' इत्यभिधानात् । १५ पुत्रमित्रकलत्रस्रक्चन्दनादिकम् । १६ अज्ञानम् । १७ विरक्तो भूत्वा। १८ प्राप्तुमिच्छुः । १६ वायुरथस्य बन्धुजनाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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