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षट्चत्वारिंशत्तम पर्व
४५९ पावित्यगतिरस्यासीन्महादेवी शशिप्रभा। तयोहिरण्यवर्माख्यः सुतो रतिवरोऽभवत् ॥१४६॥ तस्मिन्नेवोत्तरश्रेण्या गौरीविषयविश्रुते । पुर भोगपुर वायुरयो विद्याधराधिपः ॥१४७॥ तस्य स्वयंप्रभादेव्यां रतिषणा प्रभावती। बभूव जैनधर्माशोऽप्यभ्युद्धरति देहिनः ॥१४८॥ माता पिताऽपि या यश्च सुकान्तरतिवेगयोः । जन्मन्यस्मिन् किलाभूतां चित्रं तावेव' संसृतिः ॥१४॥ हा मे प्रभावतीत्याह जयश्चेत ससुलोचनः । रूपादिवर्णनं तस्याः किं पुनः क्रियते पृथक् ॥१५०॥ यौवनेन समाक्रान्तां कन्यां रष्ट्वा प्रभावतीम् । कस्म देयेयमित्याह खगेशो मन्त्रिणस्तवः (ततः) ॥१५१॥ शशिप्रभा स्वसा देव्या भ्रातादित्यगतिस्तथा । पर च खचराधीशाःप्रीत्याऽयाचन्त कन्यकाम् ॥१५२॥ ततः स्वयंवरो युक्तो विरोधस्तम्न केनचित् । इत्यभाषन्त निश्चित्य 'तद्भूपोऽप्यभ्युपागमत् ॥१५३॥ ततः सर्वेऽपि तद्वार्ताकर्णनादागमन वराः । कमप्येतेषु सा कन्या नाग्रहीद रत्नमालया ॥१५४॥ मातापितुभ्यां तद् दृष्ट्वा सम्पुष्टा प्रियकारिणी । यो जयेद् गतियुद्धे मां माला संयोजयाम्यहम् ॥१५॥
कण्ठे तस्येति वक्त्येषा प्रागित्याह सखी तयोः । श्रुत्वा तत्र दिने सर्वानुचितोक्त्या व्यसर्जयत् ॥१५६॥ नामकी एक नगरी है। उसके राजा थे आदित्य गति और उनकी रानीका नाम था शशिप्रभा। रतिवर कबूतर मरकर उन दोनोंके हिरण्यवर्मा नामका पुत्र हुआ ॥१४५-१४६॥ उसी विजया पर्वतकी उत्तर श्रेणी में एक गौरी नामका देश है उसके भोगपुर नामके प्रसिद्ध नगरमें विद्याधरोंका स्वामी राजा वायुरथ राज्य करता था। उसकी स्वयंप्रभा नामकी रानी थी। रतिषणा कबूतरी मरकर उन्हीं दोनोंको प्रभावती नामकी पुत्री हुई सो ठीक ही है क्योंकि जैनधर्मका एक अंश भी प्राणियोंका उद्धार कर देता है ॥१४७-१४८॥ सुकान्त और रतिवेगाके जो पहले माता-पिता थे वे ही इस जन्ममें भी माता-पिता हुए हैं सो ठीक ही है क्योंकि यह संसार बड़ा ही विचित्र है । भावार्थ-सुकान्तके पूर्वभवके माता-पिता अशोक और जिनदत्ता इस भवमें आदित्यगति और शशिप्रभा हुए हैं तथा रतिवेगाके पूर्वभवके माता-पिता विमलश्री और श्रीदत्ता इस भवमें वायुरथ तथा स्वयंप्रभा हुए हैं ॥१४९॥ जब जयकुमारने सुलोचनाके साथ बैठकर 'हा मेरी प्रभावती' ऐसा कहा तब फिर उसके रूप आदिका वर्णन अलगसे क्या किया जाय ? ।।१५०॥ प्रभावती कन्याको यौवनसे सम्पन्न देखकर विद्याधरोंके अधिपति वायुरथने अपने मंत्रियोंसे कहा कि यह कन्या किसे देनी चाहिये ? ॥१५१॥
__मंत्रियोंने परस्परमें निश्चय कर कहा कि 'शशिप्रभा आपकी बहिन है, और आदित्यगति आपकी पट्टराज्ञीका भाई है। ये दोनों तथा इनके सिवाय और भी अनेक विद्याधर राजा बड़े प्रेमसे कन्याकी याचना कर रहे हैं इसलिये स्वयंवर करना ठीक होगा क्योंकि ऐसा करनेसे किसीके साथ विरोध नहीं होगा।' मन्त्रियोंकी यह बात राजाने भी स्वीकार की ॥१५२-१५३॥ तदनन्तर स्वयंवरकी बात सुनकर सभी राजकुमार आये परन्तु कन्या प्रभावतीने इन सबमें से किसीको भी रत्नमालाके द्वारा स्वीकार नहीं किया-किसीके भी गलेमें रत्नमाला नहीं डाली ॥१५४॥ यह देखकर माता-पिताने उसकी सखी प्रियकारिणीसे इसका कारण पूछा, सखीने उन दोनोंसे कहा कि यह पहले कहती थी कि 'जो मुझे गतियुद्ध में जीतेगा मैं उसीके गलेमें माला डालुंगी' यह सुनकर राजाने उस दिन यथायोग्य कहकर सबको बिदा किया ॥१५५-१५६॥
१ रतिवरनामकपोतः । २ रतिषेणा नाम कपोती। ३ श्रीदत्तविमलश्रियौ। अशोकदेवजिनदत्ते द्वे च अभूतां वायुरथस्वयंप्रभादेव्यौ चादित्यगतिशशिप्रभे च पितरावभूतामिति । ४ सुलोचनया सहितः । ५ तव शशिप्रभेति भगिनी। ६ वायुरथस्य तव भार्यायाः। ७ स्वयंप्रभादेव्या भ्राता आदित्यगतिश्च सोऽपि स्वपुत्राय याचितवान् इत्यर्थः । ८ एवं सति। ६ तथास्त्वित्यनुमतिमकरोत् । १० कन्यायाः सखी । ११ वायुरथस्वयम्प्रभयोः ।
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