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षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व
तपो विधाय कालान्ते समापन् लोकपालताम्' । वधूवरं च दानानुमोदपुण्यमवाप्तवत् ॥१२६॥ " तदाकयं महीशस्य' देवी' वसुमती तदा । स्वजन्मान्तर सम्बोधमूर्द्धानन्तरबोधित्त ॥१२७॥ श्रहं पूर्वोक्त' देवश्रीस्त्वत्प्रसादादिमां' श्रियम् । प्राप्ता तदातनो राजा" वद क्वाद्य प्रवर्तते ॥१२८ इति तस्याः परिप्रश्न स प्रजापालभूपतिः । लोकपालोऽयमित्युक्ते प्रियदत्ता स्वपूर्वजम् ॥ १२६ ॥ जन्मावबुद्ध्य वन्दित्वा साऽटवीश्रीरियं त्वहम् । शक्तिषेणो मम प्रेयान् असौ क्वाद्य प्रवर्तते ॥१३०॥ इति पृष्टाऽवदच्छक्तिषेणस्ते "ऽयं " मनोरमः । कुबेरदयितः सत्यदेवोऽभूत्तनु जस्तव ॥१३१॥ देवभूयं " गताः श्रेष्ठिसचिवास्त्वत्पते" शम् । २० आरभ्य जन्मनः स्नेहात् परिचर्यां प्रकुर्वते ॥१३२॥ कुबेरदयितस्यापि पिता प्राच्यः स सत्यकः । पाता र गत्यन्तरस्थाश्च पुण्यात् स्निह्यन्ति देहिनः ॥१३३॥ भवदेवेन र निर्दग्धं द्विजावेतौ " वधूवरम् । सार्थेशो" धारिणी चेहरा पत्युस्ते पितराविमौ ॥ १३४॥
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दत्तके चारों मंत्रियोंने सब परिग्रहका परित्याग कर तप धारण किया और आयुके अन्तमें लोकपालकी पर्याय प्राप्त की । इसी प्रकार सुकान्त और रतिवेगा नामके वधू-वरने भी दानकी अनुमोदना करने से प्राप्त हुआ बहुत भारी पुण्य प्राप्त किया ॥ १२३ - १२६ ।। यह सब सुनकर राजा लोकपालकी रानी वसुमती को अपने पूर्वजन्मकी सब बात याद आ गई जिससे वह मूच्छित हो गई और सचेत होनेपर अमितमति आर्यिकासे कहने लगी कि मैं पूर्वजन्ममें शोभानगरके राजा प्रजापालकी रानी देवश्री थी, आपके प्रसादसे ही मैं इस लक्ष्मीको प्राप्त हुई हूँ, मेरे उस जन्मके पति राजा प्रजापाल आज कहाँ हैं ? यह कहिये ।। १२७ - १२८ ।। इस प्रकार वसुमतीका प्रश्न समाप्त होनेपर अमितमति आर्यिकाने कहा कि यह लोकपाल ही पूर्वजन्मका प्रजापाल राजा है । इतना कहते ही प्रियदत्ताको भी अपने पूर्वभवकी याद आ गई। उसने आर्थिक को वन्दना कर कहा कि शक्तिषेणकी स्त्री अटवीश्री तो मैं ही हूँ, कहिये मेरा पति शक्तिषेण आज कहाँ है ? इस प्रकार पूछा जाने पर अमितमतिने कहा कि यह तेरा पति कुबेरकान्त ही उस जन्मका शक्तिषेण है और यह कुबेरदयित ही उस जन्मका सत्यदेव है जो कि तुम्हारा पुत्र हुआ है । सेठ मेरुकदत्तके जो भूतार्थ आदि चार मंत्री थे वे देवपर्यायको प्राप्त हो स्नेहके कारण जन्म से ही लेकर तुम्हारे पतिकी भारी सेवा कर रहे हैं- कामधेनु और कल्पवृक्ष बनकर सेवा कर रहें हैं ।। १२९ - १३२ ।। कुबेरदयितका पूर्व जन्मका पिता सत्यक भी देव होकर उसकी रक्षा करता है सो ठीक ही है क्योंकि पुण्य के प्रभावसे दूसरी गतिमें रहनेवाले जीव भी स्नेह करने लग जाते हैं ॥ १३३ ॥ भवदेवने पूर्वोक्त वधू-वर (रतिवेगा और सुकान्त ) को जला दिया था इसलिये वे दोनों ही मरकर ये कबूतर कबूतरी हुए हैं । सेठ मेरुकदत्त और
वत्यहम् ।
१ लोकपालसुरत्वम् । २ सुकान्तरतिवेगेति मिथुनम् । ३ प्राप्तम् । ४ पुण्यम् । प्राप्तमित्यादिवचनम् । ५ प्रजापालपुत्रलोकपालस्य । ६ भार्या कुवेरमित्रस्य, पौत्री वसुमती । ७ निजभवान्तरपरिज्ञानजात । ८ शोभानगरपतिप्रजापाल महीपतेर्भाया देवश्रीः । हे अमितमत्यायिके, भवत्प्रसादात् । १० प्राप्त११ शोभानगरप्रतिपालप्रजापाल इत्यथः । १२ तव भर्ता लोकपालः । १३ आर्यिका । १४ तव प्रियदत्तायाः । १५ पुरावर्ती । १६ कुबेरकान्तः । १७ शक्तिषेणस्य स्वीकृतपुत्रः । कुबेरदयित इति तव पुत्रोऽभूदिति सम्बन्धः । १८ देवत्वम् । १६ तव भर्तुः कुबेरकान्तस्य । २० जननकालादारभ्य कामधेनुरुत्तमेति श्लोकोक्तसेवां कुर्वते । २१ पूर्वभवसम्बन्धिपिता सत्यकः । २२ रक्षकोऽभूत् । २३ रतिवर्मकनकश्रियोः सूनुना भवदेवेन । क्रोधात् शक्तिषेणकालान्तरेण निर्दग्धं वधूवरं सुकान्तरति - वेगेति द्वयम् । २४ कंपोतपक्षिणावभूतामिति सम्बन्धः । २५ मेरुकदत्तः । २६ अस्यां पुर्याम् । पुण्डरीकिण्याम् । २७ तव भर्तुः कुबरेकान्तस्य । २८ कुबेरमित्रधनवत्यौ ।
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