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षट्चत्वारिंशत्तम पर्व सकेतुस्तत्र' 'वैश्यशस्तनूजो रतिवर्मणः । भवदेवोऽभवत्तस्य विपुण्यः कनकश्रियाम् ॥१०४॥ तत्रैव' दुहिता जाता श्रीदत्तस्यातिवल्लभा। विमलादिश्रियाख्याता रतिवेगाख्यया सती ॥१०॥ सुकान्तोऽशोक देवेष्टजिनदत्तासुतोऽजनि । भवदेवस्य दुर्वत्या "दुर्मखाख्योऽप्यजायत ॥१०६॥ स एष द्रव्य मावय॑ रतिवेगां जिघृक्षुक': । वाणिज्यार्थं गतस्तस्मान्नायात' इति सा तदा ॥१०७॥ मातापितृभ्यां प्रादायि सु कान्ताय सुतेजसे । देशान्तरात् समागत्य तद्वार्ताश्रवणाद् भृशम् ॥१०॥ दुर्मुखे कुपिते भीत्वा तदानीं तद्वधूवरम् । वजित्वा शक्तिषणस्य शरणं समुपागतम् ॥१०॥ तदुर्मुखोऽपि निर्बन्धाद् अनुगत्य८ वधूवरम् । शक्तिषेणभयाद बद्धवरो निववृते ततः२० ॥११०॥ तत्रैकस्मैए "वियच्चारणद्वन्द्वाय समापुष । शक्तिषेणो ददावन्नं पाथेयं परजन्मनः॥१११॥ तत्रैवागत्य सार्थेशो५ निविष्टो बहुभिः सह । विभुमेरुकदत्ताख्यः श्रेष्ठी भार्यास्य धारिणी ॥११२॥ मन्त्रिणस्तस्य३ भूतार्थः शकुनिः सबृहस्पतिः। धन्वन्तरिश्च चत्वारः सर्वे शास्त्रविशारदाः॥११३॥
एभिः परिवृतः श्रेष्ठी हीनाङगर कञ्चिदागतम् । समीक्ष्यनं कुतो हेतोर्जातोऽयमिति" तान् जगौ ॥११४॥ मृणालवती नगरीका राजा धरणीपति था। उसी नगरी में सुकेतु नामका एक सेठ रहता था जो कि रतिवर्माका पुत्र था। सुकेतुकी स्त्रीका नाम कनकधी था और उन दोनोंके एक भवदत्त नामका पुण्यहीन पुत्र था ।।१०१-१०४॥ उसी नगरमें एक श्रीदत्त सेठ थे। उनकी स्त्रीका नाम था विमलश्री और उनके दोनोंके अत्यन्त प्यारी रतिवेगा नामकी सती पुत्री थी ॥१०५।। उसी नगरके अशोकदेव सेठ और जिनदत्ता नामकी उनकी स्त्रीसे पैदा हुआ सुकान्त नामका एक पुत्र था। जिसका वर्णन ार कर आये हैं ऐसा भवदेव बड़ा दुराचारी था और उस दुराचारीपनके कारण ही उसका दूसरा नाम दुर्मुख भी हो गया था ।।१०६॥ वह भवदेव धन उपार्जनकर रतिवेगाके साथ विवाह करना चाहता था इसलिये व्यापारके निमित्त वह बाहर गया था, परन्तु जब वह विवाहके अवसर तक नहीं आया तब माता पिताने वह कन्या अत्यन्त तेजस्वी सुकान्तके लिये दे दी। जब दुर्मुख (भवदेव) देशान्तरसे लौटकर आया और रतिवेगाके विवाहकी बात सुनी तब वह बहुत ही कुपित हुआ। उसके डरसे वधू और वर दोनों ही भागकर शक्तिषेणकी शरण में पहुंचे ।।१०७-१०९।। दुर्मखने भी हठसे वधू और वरका पीछा किया परन्तु शक्तिषणके डरसे अपना वैर अपने ही मनमें रखकर वहांसे लौट गया ।।११०॥ शक्तिषणने वहां पधारे हुए दो चारण मुनियोंके लिये अपने आगामी जन्मके कलेवाके समान आहार दान दिया था ।।१११।। उसी सरोवरके समीप धनी और सब संघके स्वामी मेरुकदत्त नामका सेठ बहुत लोगों के साथ आकर ठहरा हुआ था। उसकी स्त्रीका नाम धारिणी था। उस सेठके चार मंत्री थे-१ भूतार्थ, २ शकुनि, ३ बृहस्पति और ४ धन्वन्तरि । ये चारों ही मंत्री अपने अपने शास्त्रों में पण्डित थे ।।११२-११३।। एक दिन सेठ इन सबसे घिरा हुआ
१ मृणालवत्याम् । २ वणिग्मुख्यस्य। ३ कनकश्रियः । ४ श्रीदत्तविमलश्रियोः। ५ पुत्री। ६ अशोकदेवस्य प्रियतमाया जिनदत्तायाः सुतः । ७ दुर्मुख इति नामान्तरमपि। स दुर्मुखः स्वमातुलं श्रीदत्तं रतिवेगां याचितवान् । मातुलो भणितवान् त्वं व्यवसायहीनो न ददामीति । दुर्मुखोऽवोचत्-यावदहं द्वीपान्तरषु द्रव्यमावागच्छामि तावद् रतिवेगा कस्यापि न दातव्या इति द्वादशवर्षाणि कालावधि दत्वा । ८ धनमर्जयित्वा । गृहीतुमिच्छः । १० कृतद्वादशवर्षादेः सकाशात् । ११ नागतः । १२ रतिवेगा। १३ दीयते स्म। १४ सुकान्तरतिवेगाद्वयम् । १५ गत्वा। १६ समुपाश्रयत् । १७ अविच्छेदेन । १८ पृष्ठतो गत्वा । १६ व्याधुटितवान् । २० सर्पसरोबरस्थितशक्तिषणशिबिरात् । २१ सर्पसरोवरे। २२ गगनचारण । २३ आगताय । समीयुषे ल०, इ०, अ०, म०, प०, स० । २३ संवलम् । २५ वणिक्संघाधिपः । २६ मेरकदत्तस्य । २७ विकलावयवम् । २८ इति पृष्टवान् तं श्रेष्ठिनम् ।
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