Book Title: Mahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 465
________________ ४५४ महापुराणम् तदा मुनेहाद भिक्षां त्यक्त्वा गमनकारणम् । अज्ञात्वा भूपतेः प्रश्नाद् पाहामितमतिः श्रुतम् ॥६३॥ विषयेऽस्मिन् खगक्ष्मात्प्रत्यासनं वनं महत् । अस्ति धान्यकमालाख्यं तदभ्यर्णे पुरं परम् ॥४॥ शोभानगरमस्पेशः प्रजापालमहीपतिः। देवश्रीस्तस्य देव्यासीत् सुखदा श्रीरिवापरा ॥९॥ शक्तिवेगोऽस्य सामन्तस्तस्याभूत प्रीतिदायिनी । अटवीश्रीस्तयोः सत्यदेवः सूनुरिमेर समम् ॥६६॥ सर्वेऽप्यासन्नभव्यत्वाद् अस्मत्या दसमाश्रयात् । श्रुत्वा धर्म नपणामा समापन्मद्यमांसयोः ॥१७॥ त्यागं पर्वोपवासं च शक्तिषेणोऽपि भक्तिमान् । मुनिलात्यये भुक्तिम्" अग्रहीत् स गहिवतम् ॥१८॥ "तत्पत्ती शुक्लपक्षादिदिनेऽष्टम्यामथापरे । पक्षे पञ्चसमास्त्यागम् पाहारस्य समग्रहीत् ॥६॥ अनुत्रवृद्धकल्याणनामधेय नुपोषितम् । सत्यदेवश्च साधूनां स्तवनं प्रत्यपद्यत॥१००॥ इत्यभूवन्नमी श्रद्धाविहीनव्रतभूषणाः । स मृणालवती नेतुं कदाचिदटवीश्रियम् ॥१०१॥ पित्रोः२५ पुरी प्रवृत्तः सन् शक्तिर्वणः ससैन्यकः । वन धान्यकमालाख्ये प्राप्य सर्पसरोवरम् ॥१०२॥ निविष्टवानिदं चान्यत् प्रकृतं तत्र कथ्यते । पतिमणालदत्याख्यनगर्या धरणीपतिः२५ ॥१०॥ जानती हूँ, सुनिये ॥९१-९२।। उस समय वे मुनि आहार छोड़कर सेठके घरसे चले गये थे। जब राजाको उनके इस तरह चले जानेका कारण मालम नहीं हआ तब उसने अभिमति गणिनी (आर्यिका) से पूछा । अमितमतिने भी जैसा सुना था वैसा वह कहने लगी ॥९३॥ इसी पुष्कलावती देशमें विजया पर्वतके निकट एक 'धान्यकमाल' नामका बड़ा भारी बन है और उस बनके पास ही शोभानगर नामका एक बड़ा नगर है। उस नगरका स्वामी राजा प्रजापाल था और उसकी स्त्रीका नाम था देवधी। वह देवश्री द समान सुख देनेवाली थी ।।९४-९५॥ राजा प्रजापालके एक शक्तिषेण नामका सामन्त था, उसकी प्रीति उत्पन्न करनेवाली अटवीश्री नामकी स्त्री थी। उन दोनोंके सत्यदेव नामका पुत्र था। किसी समय निकटभव्य होनेके कारण इन सभीने मेरे चरणोंके आश्रयसे धर्मका उपदेश सुना। राजा भी इनके साथ था। उपदेश सुनकर सभीने मद्य-मांसका त्याग किया और पर्वके दिन उपवास करनेका नियम लिया। भक्ति करनेवाले शक्तिषणने भी गृहस्थके व्रत धारण किये और साथमें यह नियम लिया कि मैं मुनियोंके भोजन करनेका समय टालकर भोजन करूंगा ॥९६-९८॥ शक्तिषेणकी स्त्री अटवीश्रीने पांच वर्ष तक शुक्ल पक्षका प्रथम दिन और कृष्णपक्षकी अष्टमीको आहार त्याग करनेका नियम किया, अनुप्रबद्ध कल्याण नामका उपवास ब्रत ग्रहण किया तथा सत्यदेवने भी साधुओंके स्तवन करनेका नियम लिया ॥९९१००॥ इस प्रकार ये सब सम्यग्दर्शनके बिना ही व्रतरूप आभूषणको धारण करनेवाले हो गये। किसी एक दिन सेनापति शक्तिषेण अपनी सेनाके साथ अटवीश्रीको लेनेके लिये उसके माता-पिताकी नगरी मृणालवतीको गया था। वहांसे लौटते समय वह धान्यकमाल नामके वनमें सर्पसरोवरके समीप ठहरा। उसी समय एक दूसरी घटना हई जो इस प्रकार कही जाती है। १ लोकपालस्य। २ वक्ति । ३ अमितमत्यायिका। ४ स्वयं चारणमुनिनिकटे आकर्णितम् । ५ पुष्कलावत्याम् । ६ विजयार्द्धगिरिसमीपम् । ७ समीपे। ८ नगरस्य। ६ नायकः । १० सत्यदेवनामा स्वीकृतपुत्रः सञ्जातः । ११ इमे सर्वे देवश्रीदेव्यादयः समं धर्म श्रुत्वेति सम्बन्धः । १२ अमितगतिनामास्मत्पादसमाश्रयात् । १३ मुनिचर्याकाले अतिक्रान्ते राति । १४ आहारं स्वीकरोमीति व्रतम् । १५ शक्तिषेणभार्या । १६ शुक्लपक्षप्रतिपदिने । अपरे पक्षे अष्टम्यां दिने च । १७ पञ्चवर्षाणि । १८ उपवासव्रतं समग्रहीत् । १६ परमेष्ठिनां स्तोत्रम् । २० गृहीतवान् । २१ जननीजनकयोः । २२ मृणालवतीनामनगरीम्। २३ भूपतिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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