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महापुराणम् मनोरथस्य पुत्राय कन्या चित्ररथाय सा । इत्याहुः सोऽप्यनुज्ञाय कृत्वा बन्धुविसर्जनम् ॥१८१॥ 'हिरण्यवर्भणः सर्वखगराजाभिषेचनम् । विधाय बहुभिः साधं सम्प्राप्य मुनिपुडगवम् ॥१२॥ संयम प्रतिपन्नः सन् सहवायुरथः स्वयम् । तपो द्वादशधा प्रोक्तं यथाविधि समाचरत् ॥१८३॥ इत्युक्त्वा रतिवेगाऽहं रतिषेणा प्रभावती । चाहमेवेति सभ्यानां निजगाद सुलोचना ॥१८४॥ तदाकर्ण्य जयोऽप्याह पतिस्तासामहं० क्रमात् । जाये स्मर तत्र तत्रेति विश्वविस्मयकृद्वचः ॥१८॥ पुनः प्रियां जयः प्राह प्रकृतं किञ्चिदप्यतः । अवशिष्टं तदप्युच्चस्त्वया कान्ते निगद्यताम् ॥१८६॥ इति पत्युः परिप्रश्नाद्दशन ज्योत्स्नया सभाम् । मूतिः कमवती वेन्दोविकासमुपनीयताम् ॥१८७॥ साऽब्रवीदिति तद्वत्तं स्वपुण्यपरिपाकजम् । सुखं राज्यसमुद्भुतं यथेष्टमपि निविशन्२ ॥१८॥ परेाः कान्तया सार्द्ध स्वेच्छया विहरत् वनम् । सरो धान्यकमालाख्यं वीक्ष्यादित्यगतेः सुतः ॥१८६॥ "स्वप्राच्यभवसम्बन्धं प्रत्यक्षमिव लक्षयन् । काललब्धिबलाल्लब्धनिर्वेदो विदुषां वरः ॥१०॥ भङगुरः१६ सङगमः सर्वोऽप्यगिनामभिवाञ्छितः । किं नाम सुखमत्रेदम् अल्पसडकल्पसम्भवम् ॥१६॥ आयुर्वायुचलं कायो हेय एवामयालयः । साम्राज्यं भुज्यते "लोलर्बालि"शबहुदोषलम्॥१९२॥
अदूरपारः० कायोऽयम् असारो दुरिताश्रयः । एतादात्म्यप्रात्मनोऽनेन धिगेनमशुचिप्रियम् ॥१६॥ प्रेमसे आदित्यगतिके समीप जाकर प्रार्थना की कि यह प्रभावतीकी पुत्री रतिप्रभा कन्या आप मेरे मनोरथके पुत्र चित्ररथके लिये दे दीजिये।' आदित्यगतिने भी स्वीकार कर समागत बन्धुओंको बिदा किया ॥१८०-१८१॥ महाराज आदित्यगति सब विद्याधरोंके राज्यपर हिरण्यवर्माका अभिषेक कर अनेक लोगोंके साथ किन्हीं मुनिराजके समीप पहुंचे, और वायुरथ के साथ साथ स्वयं भी संयम धारण कर विधिपूर्वक शास्त्रोंमें कहे हुए बारह प्रकारके तपश्चरण करने लगे ॥१८२-१८३॥ यह सब कहकर सुलोचनाने सब सभासदोंसे कहा कि वह रतिवेगा भी मैं ही हूँ, रतिषणा (कबूतरी) भी मैं ही हूँ और प्रभावती भी मैं ही हूँ ॥१८४॥ यह सुनकर जयकुमारने भी सबको आश्चर्य करनेवाले वचन कहे कि उन तीनों भवोंमें अनु क्रमसे मैं ही उन रतिवेगा आदिका पति हुआ हूँ॥१८५।। जयकुमार फिर अपनी प्रिया-सुलोचनासे कहने लगा कि हे प्रिये, कुछ बात बाकी और रह गई है उसे भी तू अच्छी तरह कह दे ॥१८६।। जिस प्रकार चन्द्रमाकी मूर्ति कुमुदिनीको विकसित कर देती है उसी प्रकार वह सुलोचना भी अपने पतिके पूर्वोक्त प्रश्नसे दांतोंकी कान्तिके द्वारा सभाको विकसित-हर्षित करती हुई अपने पुण्यके फलसे होनेवाले समाचारोंको इस प्रकार कहने लगी कि वह हिरण्यवर्मा राज्यसे उत्पन्न हुए सुखका इच्छानुसार उपभोग करने लगा। किसी एक दिन अपनी वल्लभाके साथ विहार करता हुआ वह आदित्यगतिका पुत्र हिरण्यवर्मा धान्यकमाल नामके वनमें जा पहुंचा। वहां ससरोवर देखकर उसे अपने पूर्वभवके सब सम्बन्ध प्रत्यक्षकी तरह दिखने लग, काललब्धिके निमित्तसे जिसे वैराग्य उत्पन्न हआ है और जो विद्वानोंमें श्रेष्ठ है ऐसा वह हिरण्यवर्मा सोचने लगा कि प्राणियोंकी इच्छाका विषयभूत यह सभी समागम क्षणभंगुर है, इस समागममें थोड़ेसे संकलसे उत्पन्न हुआ यह सुख क्या वस्तु है ? यह आयु वायुके समान चंचल है । अनेक रोगोंका घर स्वरूप यह शरीर छोड़ने योग्य ही है। अनेक दोषोंको देनेवाले राज्यको चंचल
१ वायुरथस्थ वियोगादाहुः। २ तथास्त्वित्यनुमतिं कृत्वा। ३ अयं श्लोकः ल०म० पुस्तकयोनं दृश्यते। ४ वायुरथेन सहितः । ५ आदित्यगतिः। ६ रविषेणेति कपोती। ७ सुलोचना । ८ सभाजनानाम् । ६ अभाषत । १० रतिवेगादीनाम् । ११ जातोऽस्मि । १२ अनुभवन् । १३ प्रभावत्या सह । १४ हिरण्यवर्मा। १५ पूर्वभव । १६ क्षयशीलः । १७ आसक्तैः । १८ मूखैः । १६ बहुदोषप्रदम् । २० आसन्नावसानः । २१ तत्स्वरूपत्वम् । २२ कायेन । २३ आत्मानम् ।
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