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षट्चत्वारिंशत्तम पर्व प्रजापालतनूजाभ्यां यशस्वत्या तपोभृता । गुणवत्या च सम्प्राप्ते पुरं 'तत्परमद्धिकम् ॥१॥ राजा सा-तः पुरः श्रेष्ठो चानयोनिकटे चिरम् । श्रुत्वा सद्धर्मसद्भावं दानाद्युद्योगमाययौ ॥२॥ कदाचिच्छे ष्ठिनो गेहं जल्याचारणयोर्युगम् । प्राविशद् भक्तितो स्थापयतां तौ दम्पती मुदा ॥८३॥ 'तदुष्टिमात्रविज्ञातप्राग्भवं तत्पदाम्बुजम् । कयोतमिथुनं पक्षः परिस्पृश्याभिनय तत् ॥८४॥ "गलितान्योन्यसम्प्रीति बभूवालोक्य तन्मुनी । जातसंसारनिर्वेगौ निर्गत्यापगतौ गृहात् ॥८॥ प्रियदत्तेगितजैतदवगत्यान्यदा तु ताम् । रतिषणामपुच्छत्ते नाम प्राग्जन्मनीति किम् ॥८६॥ सा तुण्डेनालिखन्नाम रतिवेगेति वीक्ष्य तत। ममैषा पूर्वभार्येति कपोतः प्रीतिमीयिदान ॥८७॥ तथा रतिवरः पष्टः स्वनाम प्रियदत्तया । सुकान्तोऽस्म्यहमित्येषोऽप्यक्षराण्यलिखद् भुवि ॥८॥ तनिरीक्ष्य ममैवायं पतिरित्यभिलाषका। रतिषणाऽप्यगात्तेन सङगमं विध्यनुग्रहात् ॥८॥ "तत्सभातिनामेतत् श्रुत्वा प्रीतिरभूदलम् । पुनः शुश्रूषवश्चासन कथाशेषं सकौतुकाः ॥१०॥ अन्यच्चाकणितं दृष्टम् प्रावाभ्यां यदि चेत्त्वया । ज्ञायते तच्च वक्तव्यमित्युक्तवति कौरवे ॥१॥ निजवागमुताम्भोभिः सिञ्चन्ती तां सभा शुभाम् । सुलोचनाऽब्रवीत् सम्यग्ज्ञायते श्रूयतामिति ॥१२॥ की गणिनी (आयिकाओंकी स्वामिनी), तप धारण करनेवाली, प्रजापालकी पुत्री यशस्वती और गुणवतीके साथ साथ उत्कृष्ट विभूतिसे सुशोभित उस पुण्डरीकिणी नगरीमें पधारी ।।८०-८१॥ सब अन्तःपुरके साथ साथ राजा लोकपाल और सेठ कुबेरकान्त भी उन आर्यिकाओंके समीप गये और चिरकालतक समीचीनधर्मका अस्तित्व सुनकर दान देना आदि उद्योगको प्राप्त हए ॥८२।। किसी एक दिन सेठ कुबेरकान्तके घर दो जंघाचारण मनि पधारे। दोनों ही दम्पतियोंने बड़ी भक्ति और आनन्दके साथ उनका पडगाहन किया ।।८३।। उन मुनियोंके दर्शन मात्रसे ही जिसने अपने पूर्वभवके सब समाचार जान लिये हैं ऐसे कबूतर कबूतरी (रतिवर-रतिषणा) के जोड़ेने अपने पंखोंसे मुनिराजके चरणकमलोंका स्पर्श कर उन्हें नमस्कार किया और परस्परकी प्रीति छोड़ दी। यह देखकर उन मनियोंको भी संसारसे वैराग्य हो गया और दोनों ही निराहार सेठके घरसे निकलकर बाहर चले गये ॥८४-८५॥ इशारोंको समझनेवाली प्रियदत्ताने यह सब जानकर किसी समय रतिषणा कबूतरीसे पूछा कि पूर्वजन्ममें तुम्हारा क्या नाम था ? ॥८६॥ उसने भी चोंचसे 'रतिवेगा' यह नाम लिख दिय देखकर यह पूर्वजन्मकी मेरी स्त्री है यह जानकर कबूतर बहुत प्रसन्न हुआ ।।८७।। इसी प्रकार प्रियदत्ताने रतिवर कबूतरसे भी उसके पूर्वजन्मका नाम पूछा तब उसने भी मैं पूर्व जन्ममें सुकान्त नामका था ऐसे अक्षर जमीनपर लिख दिये ॥८८॥ उन्हें देखकर और यह मेरा ही पति है यह जानकर उसीके साथ रहनेकी अभिलाषा करती हुई रतिषणा भी देवके अनुग्रहसे उसीके साथ समागमको प्राप्त हई-दोनों साथ साथ रहने लगे ॥८९॥ यह सब सनकर सभामें बैठे हुए सभी लोगोंको बहुत भारी प्रसन्नता हुई और कथाका शेष भाग सुननेकी इच्छा करते हुए सभी लोग बड़ी उत्कण्ठासे बैठे रहे ।।९०॥ 'इसके सिवाय हम दोनोंने और भी जो कुछ देखा या सुना है उसे यदि जानती हो तो कहो' इस प्रकार जयकुमारके कहनपर अपने 'वचनामतरूपी जलसे उस शभ सभाको सींचती हई सलोचना कहने लगी'-'हाँ, अच्छी तरह
१ पुण्डरीकिणीपुरम् । २ लोकपालः। ३ कुबेरकान्तः। ४ अमितानन्तमत्योः । ५ जङघाचारणद्वयावलोकनमात्र । ६ नत्वा। ७ विगलितपरस्परात्यन्तस्नेहवदित्यर्थः । ८ कपोतमिथुनम् । ६ गलितमोहमिति ज्ञात्वा । गम्यान्य-ल०, अ०, प०, इ० । १० लिखितनामाक्षरम् । ११ निजपूर्वजन्मनाम । १२ सुकान्ताख्योऽह-ल०। १३ विधेरानुकूल्यात् । १४ जयकुमारसभावर्तिनाम् । सपत्न्यादीनाम्। १५ जातनिर्वेदात् भिक्षामगृहीत्वा निर्गत्य गतचारणादिशेषकथाम् । १६ जयकुमारे ।
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